Book Title: Sagar Nauka aur Navik
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 141
________________ तन्दुलमत्स्य का वर्णन आपने पढ़ा या सुना होगा! चावल के दाने जितना लघु उसका शरीर होता है और कहा जाता है कि यह मगरमच्छ की आँख को पलक पर बैठा रहता है। मगरमच्छ को पता भी नहीं होता, कि कोई मेरी आँख पर बैठा है। जब जल प्रवाह के साथ बहती हुई मछलियाँ उस ओर आती हैं, तो वह भयभीत होकर दुबकता है, छिपता है। परन्तु, जब वह सोए हुए मगरमच्छ के मुंह में उसकी सांस के आने और जाने के साथ सैकड़ों ही मछलियों को उसके मुंह में जाते और वापिस लौटते देखता है, तो विचार करता है, कि इसे इतना विशाल देह मिला है, फिर भी कितना मख है, कि इन मछलियों को उदरस्थ नहीं करता। मुझे इतना विशाल शरीर मिला होता, तो मैं सामने से बहने वाली मछलियों में से एक को भी नहीं छोड़ता, सभी को एक झटके में निगल जाता। इन कलषित परिणामों के कारण वह मरकर सातवें नरक में जाता है। बाहर से वह न तो किसी मछली के एक पंख को भी तोड़ पाता है और न खून का एक कतरा ही बहा सकता है, पर मन के दुष्ट परिणामों से सातवें नरक का बन्ध कर लेता है। चक्रवर्ती सम्राट् भरत का उल्लेख आता है। उसने लम्बे समय तक भयंकर युद्ध किए। बाहर से कितनी बड़ी हिसा की उसने। पर एक दिन शीशमहल में शृंगार करते समय अंगुली में से एक मद्रिका के गिरते ही जब वह कान्तिहीन लगने लगी, तो उसने सारे आभूषण उतारकर देखा, शरीर का सौन्दर्य फीका-फीका लगा। भावों की धारा शरीर से हटकर अन्दर की गहराई में उतर गई। बाह्य विभूति की क्षणभंगुरता का बोध हो गया, मोह क्षीण हो गया और तत्काल वहीं केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। प्रश्न है, युद्धजन्य कर्म-बन्ध का क्या हुआ? उत्तर है, वह कर्म-बंध शिथिल था, दृढ़ नहीं था, अतः तीव्र वैराग्यभाव से वह सहसा क्षीण हो गया, क्योंकि कर्म करते समय मन में तीव्र बन्ध करने जैसी आसक्ति नहीं थी। वह प्रजा की रक्षा के लिए अपने राज-कर्तव्य का पालन कर रहा था, पर परिणामों में कालष्य नहीं था। इसलिए परिणामों के बदलते ही सब-कुछ बदल गया। कितनी बड़ी शक्ति है मन की। मन में विवेक की ज्योति जगने पर कर्म में परिवर्तन हो जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि शरीर एवं इन्द्रियों का सही ढंग से उपयोग करना और उन्हें सत्कम में लगाना ही महत्त्वपूर्ण है और भगवान् महावीर की यह दृष्टि यदि जीवन में उतर जाए, तो फिर अनन्त ज्योति के प्रकट होने में कुछ भी देर नहीं लगेगी। मन के जीते जीत १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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