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कोई भी पूर्व निर्धारित निश्चित राह नहीं है। हर यात्री का अपना ही एक नया पथ होता है। यह परम सत्य है कि मार्ग बने हुए नहीं होते, बनाने पड़ते हैं। जिन्दगी की नयी मंजिलों के लिए पुरानी पगडंडियाँ काम नहीं आती है।
पुराने पथ पर भी चलना हो, तो उसे साफ कर चलने योग्य बनाना होगा। देखते हो, पुराने पथ पर कितने झाड़-झंखाड़ खड़े हो गए हैं। कहीं बहुत गहरे अन्धगर्त हो गए हैं, तो कहीं ऊंचे टीले बन गए हैं। नुकीले काँटों से कितना आच्छन्न है पुराना पथ । यदि इस पुराने पथ पर भी चलना है, तो इसे ठीक करना होगा, झाड़झंखाड़ों को साफ कर तथा गों को पाटकर समतल बनाना होगा, और तब, यह पुराना पथ भी नया ही पथ हो जाएगा। यात्रा नये पथ पर ही सुखद होती है, यह सर्वानुभूत सत्य है।
नये पथ का निर्माण करो यात्री ! तुम नये हो, तो तुम्हारा पथ भी नया। तुम्हारा हर कदम नया है, उसे नया पथ ही चाहिए। पुरानी लकीरों पर चले, तो क्या चले? लकीर के फकीर मत बनो। लकीर का प.कीर अंधा होता है। उसकी अपनी आँख नहीं होती। वह दूसरों की आवाजों पर चलता है। और दूसरों की आवाजें कभी धोखा भी दे जाती हैं।
सुना है तुमने लीक-लीक कौन चलता है ? लीक-लीक चलता है कपूत। जिसकी आँखों में कोई नयी रोशनी नहीं है, जिसके मस्तिष्क में नया कोई सपना नहीं है, जिसके अन्तर्मन में नयी कोई कल्पना नहीं है, नया स्फूरण नही है, जिसे नया कुछ पाना नहीं है, जो प्राप्त है उसी पर सन्तुष्ट होकर बैठे रहना है, वह कभी के मत हुए बाप-दादाओं के नाम पर पुरानी लकीरों के गीत गाता रहता है, उन्हीं पर चलने के मनसूबे बांधता रहता है। परन्तु जो सपूत है, वे पुरानी लकीरों पर नहीं चलते। हर सपूत नयी लकीरें बनाता है, नयी लकीरों पर चलाता है। सुना है कभी यह दहा--
"लीक-लीक गाड़ी चले, लीक ही चले कपूत।
ये तीनों लोकों ना चलें, शायर, सिंह, सपूत ॥" जो चलना जानता है, उसके लिए जहाँ भी कदम पड़ते हैं, पथ बन जाता है। भले आदमी, क्या पूछता फिरता है--कहां चलं, विधर चलं, कौन-सा पथ सीधा है, साफ है। तेरे ये विकल्प ही तुझे चलने नहीं दे रहे हैं। एक दिन क्या, हजार दिन भी तू यही सोचता रहेगा, तो चल नही पायेगा। संकल्प के रूप में बिखरे मन को एकत्र कर, और चल पड़ । तु चला कि राह बनी। तेरा हर-कदम राह का निर्माता है।
देखते हो, पर्वत की वज्र चट्टानों को तोड़कर ऊपर आनेवाला इरना च्या करता है ? उसके लिए विसी ने पहले से पथ ना रखा है क्या? झरना इधर-उधर टकराता जाता है, अपना पथ स्वयं बनाता जाता है, उछलताकुदता-मचलता बहता जाता है। बाधाएं आती हैं, पथ अवरुद्ध हो जाता है। कुछ क्षण के लिए झरना स्वता भी है, किन्तु चन्द क्षणों में ही बाधाओं को वह टक्कर मारता है कि बाधाएँ चूर चूर हो जाती हैं और झरना उछल कर झट आगे बढ़ जाता है, हंसता..... .गाता......शोर मचाता।
मानव ! तु कौन है ? झरना ही है तू भी तो। पर्वत के झरने की शक्ति तो सीमित है। किन्तु तु तो अनन्त शक्ति का स्रत है। तु अनन्त, तेरी शक्ति अनन्त! तू तो भुजाओं से सागर पार करने के लिए आया है। नौका की क्या प्रतीक्षा? तेरी भुजा ही तेरी नौका है। तेरे जैसे हाथ और किसी के पास है ? नहीं है, नहीं हैं, देवताओं के पास भी नहीं है। देवता भी मनुष्य बनकर ही कुछ करना चाहते हैं। बिना मनुष्य बने, उनका भी गजारा नहीं है। श्रमण भगवान् महावीर इसीलिए तुझे सम्बोधित करके कह रहे हैं--देवाणु प्पिय, अर्थात् देवताओं के प्यारे। वैदिक ऋषि तुझे अमृतपुत्र कहते हैं।
अत: मानव ! तू अपने को समझ, पहचान कि तू कौन है ?
"तू मानव है, स्वयं स्वयं का, स्रष्टा असली भाग्य विधाता। नर के चोले में नारायण, तू है निज-पर सबका त्राता॥"
मार्ग, तुम्हें खोजना है
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