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मानव जब कभी अपने ऊपर कोई दुःख, संकट, रोग, अपमान या अन्य अभाव आदि का प्रहार होते देखता है, तो झटपट रोने बैठ जाता है, हजार-हजार आँसू बहाने लग जाता है। कभी-कभी तो इतना हाहाकार करता है, चिल्लाने लगता है कि आसपास के खुशनुमा वातावरण को भी गमगीन बना देता है।
किन्तु, वह यह नहीं समझता है कि इन आँसूओं का आखिर मल्य क्या है ? इस प्रकार के रोने-धोने से समस्या का क्या समाधान है, जीवन-
निर्माण के लिए क्या विशिष्ट उपलब्धि है ? यह मानसिक दुर्बलता, यह हीनभावना इस बात की सूचक है कि व्यक्ति ने अंधकार को भेदकर प्रकाशमान होने वाली उज्ज्वल भविष्य की स्वर्णकिरण का विश्वास गंवा दिया है। वह एक भयंकर निराशा के भंवर में उलझ गया है, जिसमें से सकुशल पार हो जाने का आत्म-विश्वास पूरी तरह खो बैठा है। अब यह व्यक्ति वह व्यक्ति है, जो तन से जिन्दा रह कर भी मन से मर चुका है। यह वह सड़ती हुई जिन्दा लाश है, जो मर्दा लाश से भी अधिक भयंकर है।
यह अर्थहीन रुदन और बकवास उत्थान नहीं, पतन का ही हेतु है। वह दुःख का प्रतीकार करने के लिए आँसू बहाता है, पर वह यह नहीं जानता कि इस तरह से तो दुःख को और अधिक गहरा बनाता है। दुःख के आँसू दुःख को ही जन्म देते हैं ? जो जैसा है, उससे वैसी ही तो संतति होगी। यह एक अटल प्राकृतिक नियम है। जौ से जौ और चना से चना ही पैदा होता है। इस उत्पत्तिक्रम में कभी विपर्यय होता है क्या? भगवान् महावीर का तत्त्व-दर्शन है कि दुःख, शोक, ताप, क्रन्दन तथा विलाप आदि असातावेदन अर्थात् दुःख के ही कारण होते हैं। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरिया में बाहर खले आकाश में आग उगलते सूरज के नीचे बैठकर कोई विचार-मूढ़ शीतलता का आनंद लेना चाहे, तो यह कैसे हो सकता है? शीतलता के लिए छाया में बैठना चाहिए या धूप में ?
__जिस व्यक्ति की चिन्तन-शक्ति दुर्बल है, या विपरीताभिनिवेश से ग्रस्त है, वह दुःखजन्य शोक की स्थिति में आस-पास के समाज या व्यक्ति को अपने प्राप्त दुःख का हेतु मानकर उसके प्रति घृणा, द्वेष एवं वैर की भावना को हवा देता है। आक्रोश करता है, बरे-से-बरे अनिष्ट का विकल्प करता है। यहाँ तक देखा गया है कि प्रकृतिजन्य दुःख के होने पर जड़ प्रकृति के प्रति भी रोष करता है। ठोकर लगने पर पथ में पड़े पत्थर को भी गालियाँ देने लगता है। वर्षा होने पर बादलों को दोषी ठहराता है और तेज धूप पड़ने पर सूर्य को। अपनी स्वयं की गलती को न स्वीकार कर इस प्रकार दोषारोपण या नफरत करने से क्या लाभ है, कभी सोचा है रोने वालों ने ? देखा गया है, रोते जाते हैं और इधर-उधर दोषारोपण की गन्दगी बिखेरते जाते हैं। और, यह गन्दगी कैसे शुभ को जन्म दे सकती है, जिससे कि दुःख दूर हो, सुख प्राप्त हो। अशुभ का पुत्र अशुभ ही होता है।
4. दूसरे के दुःख पर हंसनेवाला व्यक्ति मानव नहीं, मानव-तनधारी कर पिशाच होता है। हृदयहीन अकरुण व्यक्ति को भारतीय-संस्कृति में राक्षस माना गया है। इसीलिए पुराणों के ब्रह्मा ने राक्षसों को 'दया करो' का उपदेश दिया था--'दयध्वम् ।'
दुःख आने पर जो व्यक्ति दिगमढ होकर रोने लग जाता है, अपने को असहाय, अनाथ समझते हए कर्तव्यशन्य होकर बैठ जाता है, वह पशुकोटि का मानव है। पश की लाचारी तो फिर भी समझ में आ जाती है। उसका मन-मस्तिष्क इतना विकसित नहीं कि वह दीर्घकालीन योजना के रूप में कुछ सोच-समझ सके। परन्तु, प्राणिजगत् का सर्वोत्तम विकसित मानव जब लाचार होकर रोने लगता है तो विचार होता है, यह क्या ? मानव की आँखों में अपने दुःख के लिए आँसू। यह तो पवित्र मानवता का घोर अधःपतन है। व्यक्तिगत दुःख के आँसुओं से बढ़कर और क्या अपवित्र होगा, और क्या पाप होगा! यह आत्म अवज्ञा एक प्रकार की वैचारिक एवं आन्तरिक आत्म-हत्या है।
आँसू ही बहाने हैं, तो अपनी आँखों में छिपे हए करुणा के पवित्र आँसू बहाइए, जिससे व्यक्ति का स्वयं अपना भी कल्याण हो, और आसपास के समाज का भी अनकम्पा एव करुणा के आँसू इतने पवित्र हैं कि मन पर लगे पाप के गन्दे दागों को धोकर साफ कर देते हैं, अशभ की दुर्गन्ध दूर कर शभ की सुगन्ध से मन का कणकण महका देते है। सही अर्थ में मानव वही है, जो अपने दुःखों में तो गिरिराज सुमेरू के समान अटल अचल रहते हैं, क्या मजाल एक भी आँसू आँख से बह जाए। दु:ख के कड़वे से कड़वे विष को पीकर भी हंसते रहते हैं,
कौन आँसू मोती है?
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