________________
हैं । जब चिन्तन की धारा स्वभाव में बहती है, तो वह चेतना की शुद्ध पर्याय रहती है । उसमें बन्ध नहीं होता, केवल पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। जब व्यक्ति विभाव में बहता है, तब ज्ञान की पर्याय शुभ या अशुभ होती
तब बन्ध होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि ध्यान, चिन्तन है और वह शुभ भी हो सकता है, अशुभ भी हो सकता है, और शुद्ध भी हो सकता है। बाह्य परिणति में परिणत आत्मा का ध्यान एवं चिन्तन शुभ या अशुभ होगा और वह कर्मबन्ध से छुटकारा नहीं पा सकता। जब व्यक्ति बाहर से अपने मन को हटाकर अपने स्वरूप मैं केन्द्रित करता है, उस समय भी साधक का चिन्तन तो चालू रहता है, परन्तु स्वभाव में परिणति होने के कारण वह शुद्ध है । धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान शुद्ध हैं । ध्यान की, यह शुद्ध-विशुद्ध एवं परम शुद्ध अवस्था भी चिन्तन एवं ज्ञान स्वरूप है । शुक्ल ध्यान में भी शब्द से अर्थ पर, अर्थ से शब्द पर तथा द्रव्य से पर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन एवं विचार होता ही है और शुक्ल ध्यान की प्रक्रिया कर्म बन्धन से पूर्णतः मुक्त होने, और योगों का निरोध करके निर्वाण को प्राप्त करने के पूर्व तक चालू रहती है । इसलिए निर्विचार एवं चिन्तन रहित होने का कोई अर्थ ही नहीं है।
वास्तव में निविचार की कल्पना ही नहीं की जा सकती। क्योंकि उसका कोई आधार है ही नहीं में निर्विचार एवं पूर्णतः शून्य हो गया हूँ, यह सोचना या विचार करना भी तो एक विचार है । विचारों से शून्य हो कर कोई भी साधक भले ही वह कितना भी बड़ा एवं शक्तिशाली क्यों न हो, रह नहीं सकता ।
कुछ व्यक्ति शास्त्रीय आध्यात्मिक विचारों को भी छोड़ने की तथा उनसे अपने को खाली करने की बात कहते हैं। सुनने में यह बात प्रिय लगती है, परन्तु वास्तव में यह कथन ही असत्य है क्योंकि वह प्रवक्ता भी तो विचार ही दे रहा है। जो अपने मन-मस्तिष्क को विचारों से भरे हुए है, और उन्हें अपने श्रोताओं में वितरित कर रहा है, वह विचारशून्य कैसे बन सकता है ? और जो स्वयं विचारशून्य नहीं बन सका है, तो अन्य को कैसे बना सकता है ? अतः हमें निविचार नहीं, निर्विकार बनना है।
राग-द्वेष विकार है। आगम में विकारों के रंग से अनुरंजित भावों को, विचारों को विभाव कहा है । इष्ट वस्तु पर राग आता है, और अनिष्ट पर द्वेष राग भी बन्ध का कारण है, और द्वेष भी राग-द्वेष दोनों संसार के कारण हैं । वीतराग-भाव विकारों से रहित है । विभाव के रंग से रंजित नहीं है । अतः वह आत्मा का शुद्ध स्वभाव है। उसमें स्थित आत्मा को बन्ध नहीं होता। वीतराग भाव संसार का नहीं, मुक्ति का कारण है। बात यह है कि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में वीतराग भाव है, वहाँ विकार तो नहीं है, परन्तु विचार तो वहाँ भी है।
ज्ञान कभी भी निर्विकल्प नहीं होता । ज्ञान से पूर्व होने वाला दर्शन निर्विकल्प होता है । उसमें ज्ञेय वस्तु की विशेषता का बोध नहीं होता । वस्तु है -- बस, इतना सामान्य बोध होता है । परन्तु ज्ञेय-वस्तु की विशेषता का बोध ज्ञान में होता है । आत्मा शरीर से भिन्न है, अमर है, अनन्त गुणमय है, ज्ञान-स्वरूप है -आदि विशेषताओं का परिज्ञान ज्ञान के द्वारा होता है । इसलिए आगम में उपयोग दो प्रकार का बताया है -- निराकार और साकार | दर्शन निराकार उपयोग है, और ज्ञान साकार उपयोग है । अतः ज्ञान है वहाँ विकल्प होगा ही, ज्ञेय वस्तु की विशेष - ताओं का बोध होगा ही और विचार - चिन्तन भी होगा। इसलिए विचार एवं चिन्तन रहेगा ही । क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है, स्वभाव है । वह उससे अलग हो नहीं सकता । इसलिए विचार-शून्य होने का अर्थ है -- जड़ बन जाना ।
श्रमण भगवान् महावीर ने संसार से मुक्त होने के लिए यह नहीं कहा कि निविचार बनो, परन्तु यह कहा है — सर्वप्रथम अपने स्वरूप को जानो समझो में शरीर एवं पुद्गलों से सर्वथा भिन्न हूँ। में इनका कर्ता एवं भोक्ता नहीं, केवल द्रष्टा हूँ । द्रष्टा बन कर अपने आपको देखो। राग आता है, तो उसे देखो समझो, द्वेष आता है, तो उसका परिज्ञान करो । साधक को यह बोध हो जाना चाहिए कि राग-भाव और द्वेष-भाव दोनों मेरे अपने नहीं है । मेरा अपना स्वभाव राग-द्वेष से रहित वीतराग भाव है। यह समझना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिस वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसे उसी रूप में देखना, तद्रूप समझना और उसमें श्रद्धा एवं निष्ठा रखना ही सम्यक् दर्शन है। ज्यों-ज्यों हमारे ज्ञान, चिन्तन एवं विचारों पर पड़ा हुआ आवरण हटता जाएगा, त्यों-त्यों हमारी ज्ञान चेतना शुद्ध होती जाएगी और एक समय ऐसा आयेगा कि सम्पूर्ण आवरणों से निरावरण हो कर वह चेतना अनन्त पूर्णता को प्राप्त कर लेगी।
९०
सागर, नौका और नाविक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.