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भगवान् महावीर ने मुख्य रूप से दो तत्त्व माने हैं--जीव और अजीव, जड़ और चेतन । स्थानांग सूत्र में कहा है--जीव और अजीव दो राशियां हैं। इन दो में सप्त-तत्त्व, नव पदार्थ और षट-द्रव्य का समावेश हो जाता है। संसार में जितने पदार्थ हैं, वे जीव और अजीव इन दो में आ जाते हैं। ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो जीव भी न हो और अजीव भी न हो। जो भी पदार्थ है, या तो वह जीव होगा या अजीव। इसलिए दो ही द्रव्य मुख्य हैं। शेष तत्त्व एवं पदार्थ इन दो के संयोग या वियोग से बनते हैं। इसलिए मुख्यता दो ही तत्त्वों की है।
दो में भी प्रमुख जीव है। आत्मा ही सब में श्रेष्ठ है। क्योंकि अपने और अपने से भिन्न जड़-पदार्थों के अस्तित्व का निर्णय और निश्चय जीव ही करता है। व्यक्ति ही अपने ज्ञान से समस्त पदार्थों का बोध करता है और उनका नामकरण भी जीव करता है। क्योंकि वह चेतन है, ज्ञान स्वरूप है। जीव की पहचान क्या है? उसका लक्षण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है-उपयोग अर्थात् ज्ञान ही आत्मा का, जीव का लक्षण है--
"जीवो उवओगलक्षणो।" उपयोग अर्थात् ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है। वह आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। आचारांग सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है-जो आत्मा है वही ज्ञाता है, और जो ज्ञाता है वही आत्मा है। आत्मा किसी भी समय ज्ञान से रहित नहीं होता और ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी परिलक्षित नहीं होता। ज्ञान के द्वारा ही हमें आत्मा के अस्तित्व का एवं उसके स्वरूप का बोध होता है। और अपने ज्ञान के द्वारा हो व्यक्ति पर-पदार्थों का बोध करता है। इसलिए आत्मा ज्ञान-स्वरूप है।
जिस पदार्थ में ज्ञान नहीं है, चेतना नहीं है, वहा अजीव है, जड़ है। क्योंकि जड़ पदार्थ को किसी भी तरह की अनुभूति नहीं होती। और तो क्या, जड़ को अपने अस्तित्व का भी बोध नहीं है। वह यह भी नहीं जानता कि मैं कौन हूँ? मेरा अपना स्वरूप क्या है ? मेरे में कितनी शक्ति है ? और मैं कितना उपयोगी हँ ? न उसे अनुकूल संयोगों का सुखरूप संवेदन होता है और न प्रतिकूल संयोगों का एवं अनुकुल संयोगों के वियोग का दुःख होता है। उसे स्व और पर का कोई बोध नहीं होता । जिस पदार्थ में बोधरूप व्यापार नहीं होता, वह जड़ है, अजीव है।
- चेतन में चिन्तन एवं विचार निरन्तर गतिमान रहते हैं। आज के कुछ विचारक विचार-शून्य होने की बात कहते है। उनका कहना है कि विचारों को अन्तर मन में उठने ही मत दो और जो कुछ विचार हैं उन्हें निकाल दो। परन्तु ऐसा कभी हो नहीं सकता। विचार एवं चिन्तन-शून्य होने का अभिप्राय है--जड़ बन जाना। जड़ में किसी भी तरह का विचार नहीं होता। न उसमें सोचने की शक्ति है, और न समझने की। उसे कोई शस्त्र से तोड़े-फोड़े तब भी क्रोध नहीं आता, और कोई उस पर फूल चढ़ाये तब भी उसे प्रसन्नता नहीं होती। जड़ बनना पसन्द हो तो बात अलग है, अन्यथा व्यक्ति विचार-शून्य नहीं हो सकता। विकार एवं विकल्प से तो शुन्य हो सकता है और साधक को होना भी चाहिए, परन्तु चेतना का, ज्ञान का प्रवाह तो उसमें अनादि से बहता रहा है, और अनन्त तक बहता रहेगा।
चेतना, चेतन का स्वभाव है। वह कभी भी ज्ञानशून्य नहीं हो सकता। कर्म-बन्धन से मुक्त होने पर भी वह अनन्त ज्ञानस्वरूप रहता है। ज्ञान उसका अपना गुण है, स्वभाव है । गुण गुणी से कदापि अलग नहीं हो सकता। आग का स्वभाव जलना है। वह जलती ही रहेगी। अग्नि हो और वह जले नहीं यह कभी भी सम्भव नहीं हो सकता। चिन्तन करना चेतन का स्वभाव है। व्यक्ति शरीर को स्थिर कर सकता है और वचन (वाणी) को भी रोक सकता है--पर चेतना की प्रवहमान धारा को रोकना सम्भव नहीं है। ध्यान में साधक शरीर से स्थिर रहता है--यहाँ तक कि दृष्टि को भी एकाग्र कर लेता है, परन्तु आध्यात्मिक-चिन्तन तो चलता ही रहता है। ध्यान का अर्थ है--किसी एक वस्तु पर मन को केन्द्रित करके उसी का विचार एवं चिन्तन करना।
ध्यान शब्द 'ध्यै चिन्तायाम्' से बना है। इसलिए यह कहना नितान्त गलत है कि ध्यान में साधक किसी भी प्रकार का विचार-चिन्तन न करे, वह भावशून्य बन जाए। ध्यान स्वयं चिन्तन-स्वरूप है। और वह तीन प्रकार का है--शुद्ध, शुभ और अशुभ । चिन्तन वास्तव में चेतना की सक्रियता है। शुद्ध, शुभ और अशुभ उसकी पर्याये
निविचार या निर्विकार
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