________________
_जीवन, जीवन हैं। उसमें न तो सब-कुछ अच्छा है और न सब-कुछ बुरा है। अच्छा और बुरा दोनों सापेक्ष है। कभी-कभी मनुष्य के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं कि वे जीवन को पूर्णतः मोड़ देती हैं। जिन बातों को हम बुरा कहते हैं, वे ही हमें सही रास्ते पर ले जाती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बाहर से परिलक्षित अच्छाई भी गलत रास्ते पर ले जाती है। प्रश्न-अच्छाई-बुराई का उतना नहीं है, जो बाहर में दिखाई देती है। प्रश्न है, उनके परिणाम का और सीमा का।
__ बात यह है कि क्रोध बुरा है। परन्तु, वह सर्वत्र और हर परिस्थिति में एकान्त रूप से बुरा नहीं है। उसकी भी एक सीमा और मर्यादा अपेक्षित है। जीवन में कभी क्रोध की स्थिति आ सकती है। परन्तु, जो व्यक्ति उसको सीमा से बाहर नहीं जाने देता, अपने दायरे में ही रोके रखता है, तो उससे जीवन का विकास भी हो सकता है। वह जीवन का विध्वंसक नहीं, निर्माता बन जाता है। आप देखते हैं, कोयला जलते-जलते ठण्डा हो जाता है, बझ जाता है, तो वह राख बन जाता है। उससे पकाने आदि का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। अगर, वह प्रज्वलित है, तो उस पर रोटी, दाल, सब्जी, मिष्टान्न आदि बनाये जा सकते हैं। यदि उसकी आग सीमा में रहती है, तो सब कुछ ठीक चलता है। लेकिन, आग सीमा से बाहर चली जाय, तो वह जहाँ तक फैलती है, सब-कुछ भस्म कर देती है। यदि यह सोचकर आग जलाना ही बन्द कर दें कि अग्नि सब-कुछ जला देती है, तब तो हम उससे कुछ भी काम नहीं ले सकेंगे। याद रखिए कि अग्नि को प्रज्वलित करने पर ही काम होगा, परन्तु उसे नियंत्रण में रखें। आग को नियंत्रित रखना भी एक कला है। बहनों में यह वैज्ञानिक बुद्धि है, यह कला है कि आग से कैसे काम लिया जाय। वे रोटी बेलती हैं और उसे तवे पर रख देती हैं, तथा तवे से हटाकर आग पर रख देती हैं। रोटी को कितनी देर और किस प्रकार से तवे पर रखनी चाहिए और उसे कितने समय तक अंगारों पर रखनी चाहिए? यह ज्ञान उन्हें है। यदि समय की सीमा एवं रखने का तरीका न हो, तो या तो रोटी जल जायगी, उस पर दाग पड़ जायेंगे या कच्ची रह जायगी। अतः आग बुरी नहीं है। बुराई है. आग की अति में। रोटी को बिल्कुल आग से दूर रखना भी अति है और मर्यादा से अधिक आँच पर रखना भी अति है। दोनों अति रोटी के लिए हानिप्रद हैं।
कोमलता की मलिए होती है। गलतिहा। परन्तु, उसका वहार
इसी प्रकार जब क्रोध आता है, आवेश आता है, तो उस समय वाणी में कठोरता दिखाई देती है। यदि विवेक जागृत है और रोष अपनी सीमा में है, तो वह स्व और पर के जीवन का हित करने वाला भी बन जाता है। गरु शिष्य को गर्म होकर डाँटता है। परन्तु, उसका वह रोष, उसकी वह डाँट-फटकार शिष्य की गलतियों को दूर करने के लिए होती है। गलतियाँ कूड़ा है और उसे नष्ट करने के लिए जरा-सा ताप चाहिए। माँ को कोमलता की मूर्ति कहा है। स्नेह, ममता एवं वात्सल्य में माँ की बराबरी करने वाला अन्य कोई नहीं है। परन्तु, कभी-कभी वह बच्चे पर गर्म हो जाती है। वह वाणी से भी फटकार देती है और चांटा भी मार देती है। परन्तु, उसे उसकी सीमा का पता है। वह उसका विध्वंस करना नहीं चाहती, चाहती है उसके जीवन का भव्य निर्माण । शत्र भी चांटा मारता है। चांटा, चांटा ही है। ऐसा नहीं है कि माँ के चाँटे में और शत्रु की चाँटे में बाहर में कोई अंतर है। अंतर है सीमा का। शत्रु का चांटा क्रोध की अति है और माँ का चांटा क्रोध की सीमा को नहीं लांघता। क्रोध में भी स्नेह एवं वात्सल्य छलकता है। कुंभकार चाक से उतारे गये कच्चे घड़े पर थापी से चोट करता है, परन्तु साथ में बचाव के लिए अपना हाथ घड़े के अन्दर में भी रखता है। थापी की चोट सीमा में होती है, हल्की होती है। वह हल्की चोट घड़े का निर्माण ही करती है, विध्वंस नहीं। परन्तु, घड़े को तोड़ने वाले की चोट इससे भिन्न होती है, यह आप जानते हैं।
इसलिए भारत का धर्मगुरु कहता है कि जीवन, जीवन की तरह जिओ। क्रोध-मान आदि कषायों से नहीं, उनकी अति से डरो। विवेक दृष्टि से काम लो। विवेक विकल हो कर कषाय वशवर्ती हो जाना और बात है, और अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए, जीवन विकास के लिए उन्हें एक सीमा में बाँध रखना और बात है। जहाँ अति है वहाँ सर्वनाश है। इसलिए श्रमण भगवान महावीर का प्रारंभिक साधक के लिए एक ही उपदेश है कि अपने विवेक की आँखें बन्द करके क्रोधमय, मानमय, मायामय एवं लोभमय मत बनो। अति अशुभ है, अप्रशस्त है और सीमित मन्दता प्रशस्त है, शुभ है। कषाय वर्जन का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे अस्तित्व पर ही कोई चोट करे और तुम बेभान सोये रहो। होना यह चाहिए कि व्यक्तित्व पर अपमान की चोट पड़ते ही आपकी कर्मचेतना जागृत हो, आपका सुप्त अहम् और व्यक्तित्व अंगड़ाई ले कर जाग उठे, और आपका स्वाभिमान सचेत हो जाए।
क्रोध-शक्ति का नियन्त्रण
ওও
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org