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अपितु प्रेम के अतिरिक्त उसके पास करने को और कुछ है ही नहीं । यह है वृत्ति में अहिंसा, जो अहिंसा का शाश्वत और सर्वव्यापी रूप है ।
अहिंसा की निष्ठा और भावना में अन्तर
वृत्ति में अहिंसा होगी, तो अहिंसा की निष्ठा होगी। वही उसका सर्वग्राही रूप है । अहिंसा, करुणा और सत्य की धाराएँ तो हमारे जीवन में बहती रहती हैं, भावनाएँ उमड़ती चली जाती हैं; पर जब तक अहिंसा और करुणा की निष्ठा जागृत नहीं होती, तब तक दर्शन नहीं बन पाता ।
एक माता के हृदय में पुत्र ' के प्रति जो करुणा और प्रेम का प्रवाह उमड़ता है, उसमें अहिंसा की धारा छिपी भले ही हो, परन्तु उसे हम अहिंसा की निष्ठा नहीं कह सकते । उसकी करुणा के साथ मोह का अंश जुड़ा हुआ है, व्यक्तिवाद जुड़ा है । इसलिए अनंत काल से करुणा का, प्रेम का प्रवाह उसके हृदय में उमड़ते उससे आत्मा का विकास नहीं हो सका, उत्थान नहीं हो सका ।
बिल्ली जब अपने बच्चों को दाँतों से पकड़ कर ले जाती है, तो एक दाँत भी उनके शरीर पर गड़ने नहीं पाता। क्या बात है कि जब वे ही दाँत चूहे पर लगते हैं, तो रक्त की धारा बह चलती हैं, वह चीं-चीं कर उठता है । इसमें क्या अन्तर आया ? भावना का ही तो अन्तर है ! भावना में एक जगह प्रेम और ममता है, दूसरी जगह क्रूरता है। खूंखार शेरनी भी अपने बच्चों को प्यार से दुलारती - पुचकारती है, उन्हें दूध पिलाती है । किन्तु यह प्रेम की भावना दया और अहिंसा के रूप में वहाँ विकसित नहीं हुई है। इसलिए बिल्ली और शेरनी की ममता को अहिंसा का विकास नहीं कहा जा सकता, चूंकि वहाँ अहिंसा की दृष्टि नहीं है । जहाँ अहिंसा निष्ठा और श्रद्धा के रूप में नहीं है, वहाँ वह बंधन से मुक्त करने वाली नहीं बन सकती । अहिंसा का आदर्श वहाँ जागृत नहीं हो सकता । अहिंसा की भावना और संस्कार होना एक बात है, और उसमें निष्ठा होना और बात है ।
अत: अहिंसा के बाह्य-पक्ष पर ही मत उलझो । उसके से उत्पन्न तर्क को हृदय की सहज-सरल सौहार्दपूर्ण भावनाओं के रस निखरेगा, वही यथार्थ और चिरस्थायी ही होगा ।
अहिंसा अंदर में या बाहर में ?
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हृदय - पक्ष की ओर देखो। अपने मस्तिष्क से सिंचित करो। फिर, जो अहिंसा का रूप
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