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शक्ति की समस्या बड़ी गहन समस्या है। शक्ति के सामान्य रूप से लेकर उच्चतम पराक्रमों के संबंध में विचार करने के पश्चात् जो मान्यता एवं उसकी स्वीकृति उपलब्ध होती है, उसमें बहुविध एषणाओं से लोकमुक्त एक दिव्य शक्ति है, जिसे विभिन्न परंपराओं ने विभिन्न प्रकार के शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। वस्तुतः उन सभी मंतव्यों का केन्द्रीकरण एक ही स्थान पर होता है, जिसे में आत्मशक्ति कहता हूँ। जीवन की तमाम कलुषित एषणाओं से उद्भूत जितनी निम्न महत्वाकांक्षी शक्तियाँ हैं, उन्हें एक संयोजना के अमुक स्तर तक किसी विशेष रूप में तो स्वीकृति प्रदान की जा सकती है, पर उन्हें ही जीवन का मूल स्वर मान लेना भ्रान्ति का परिचायक है, जो स्थूल भौतिक संबंधों की शक्ति के महत्त्व पर वल देता है। वहाँ क्षुद्र निजत्व का गौरव अहं की संकीर्ण परिधि में आबद्ध हो जाता है और क्षणभंगुर पदार्थों को ही सार तत्त्व अथवा महत् शक्ति के रूप में मानने लगता है। यहाँ एक बात में तत्काल ही कह देना चाहता हूँ कि शक्ति की यह स्थूल मान्यता मनुष्य को निष्ठासंपन्न नहीं करती और न जीवन और उसके मूलभूत सत्यों के प्रति निष्पक्ष ही रहने देती है। आत्मा की शक्ति की विशेषताओं को स्व से पृथक् हो कर मात्र अर्धशास्त्र और राजनीति के विशाल आवेशपूर्ण जीवन में उपलब्ध नहीं किया जा सकता। वस्तुतः आत्मा की शक्ति को अन्तविकास के वास्तविक शुद्ध स्वरूप में ही परिलक्षित किया जा सकता है। कोई भी ऐसा यान्त्रिक जगत्, जिसमें मानवता आत्म शून्य कार्य कुशलता के जड़ यन्त्रजाल में डाल दी गयी है, मानवीय प्रयत्न के उचित लक्ष्य को हृदयंगम नहीं कर सकता। और अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो हमें वह निश्चित मान लेना चाहिए कि मानव को शक्ति के मूल स्रोत का अभी कोई पता नहीं लगा है। और जीवन की विशाल धारा अपने तल प्रदेश के उस ढलान के अनुकूल नहीं बन पायी है, जिसमें से हो कर उसे बहना है और अपने निर्धारित गंतव्य तक पहुँचना है।
आधुनिक मानव संसार की समुन्नत आनन्दशील यात्रा के लिए किसी नये सांस्कृतिक आधार एवं कौटुम्बिक पुननिर्माण पर जब भी मैंने विचार किया है, आत्मा की सशक्त सुन्दरतर ऊर्जाओं के प्रयोग से ही विश्व-मानव के समुन्नत एवं सुप्रसन्न होने की बात मेरे समक्ष स्पष्ट होती रही है। जातिवाद, पंथवाद तथा राष्ट्रवाद आदि की अनेकविध विभाजक रेखाओं से पार योजक संपादन की उन्मुक्तावस्था एवं अस्तित्व की मुक्त स्वतंत्रता तक निरंतर गतिमान रहने के क्रम में, अगर इस गंभीर दायित्व का निर्वाह किसी शक्ति के द्वारा किया जा सकता है, तो वह आत्मा की ही शक्ति है। क्योंकि जीवन के सर्वागीण विकास के लिए सृजनशील अंतर्ज्ञान का होना नितान्त आवश्यक है, और यह सूत्रबद्ध वृत्ति तभी आनुक्रमिक धारा में अपना अभिलक्षित स्थान प्राप्त कर सकती हैं, जब मनुष्य तात्कालिक क्षुद्र आवश्यकताओं की उपयोगिता से ऊपर उठकर कर्म के महत् एवं शाश्वत स्वरूप को उपलब्ध करे शक्ति के गहन एवं प्रशान्त भाव को समझने के लिए जब तक मनुष्य अपने अन्तर्र के अव्यक्त में अवस्थित नहीं होगा, तब तक सारी अभिव्यक्तियाँ वास्तव में निरुपयोगी होंगी। एक बात यहाँ समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि शक्ति का वास्तविक अनन्त स्रोत साधारण जन के लिए सर्वदा अव्यक्त है। जो भी कुछ लोक यात्रा में व्यक्त होता है, वह उसका सहस्रांश भी है या नहीं, यह कह पाना मुश्किल है। वस्तुतः शक्ति का कोई बाह्य रूप नहीं होता । पदार्थ, जिस मूल ऊर्जा से संचालित है, उसे क्या कोई देख पाता है ? वह अनुभूतिगम्य है, और अनुभूति आत्मा की चैतन्य शक्ति से उद्भूत है। इसे हृदयंगम करने के लिए हमें जरा और गहरे में जाना पड़ेगा ।
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आत्मा की चित्-स्वरूप शक्ति एक ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य को श्रद्धावान बनाती है। बाहर में परिलक्षित होने वाली बुद्धि की खोज जहाँ-जहाँ भी पहुंचती है, यह आत्म-निष्ठा के कारण ही संभव हो पाती है। अतएव अव्यक्त रूप से बाह्य बुद्धि के विकास में भी यह आत्म-शक्ति ही सहायक होती है; चूंकि अभिव्यक्ति से भी परे कुछ है, जिस तक कोई दृश्य अभिव्यक्ति नहीं पहुँच पाती। किन्तु प्रत्यक्ष में विद्यमान वस्तुनिष्ठ स्थूल शक्ति ही अभिव्यक्तियों को सप्राण बनाती है— उन्हें तत्त्व और महत्त्व प्रदान करती है, इसलिए बौद्धिक प्रस्थापनाओं के प्रचारक अथवा चिन्तक आत्मा के इस अव्यक्त महत् सत्य को मानने से इन्कार करते हैं । परन्तु वस्तुतः यही वह आत्मदृष्टि है, जो कर्म को सत्य, प्रेम और सौंदर्य की धारणा के साथ व्यवस्था सम्पन्न करती है और भौतिक लहरों से उत्पीड़ित होते मानव को बचाती है।
इस संसार सागर में अनादिकाल से अनन्त आत्माएँ क्रोध, मान, माया और लोभरूप मोह-क्षोभ की उच्छृंखल लहरों के थपेड़े खाकर जर्जरित हो रहे हैं एवं दिग्भ्रमित नाविक की तरह ये संसारी प्राणी अनेकानेक रूपों में कर्मफल की वेदना से मर्माहत हो रहे हैं -- इसका मूल कारण यही है कि उन्हें सर्वोच्च ज्ञाता, द्रष्टा एवं सर्वोत्तम शक्ति : आत्म शक्ति
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