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है, किसी का बेटा है और किसी का बाप है । बाप है तो बेटा कैसे ? और बेटा है तो बाप कैसे ? इसी प्रकार चाचा और भतीजा भी एक ही व्यक्ति एक साथ कैसे हो सकता है ? ये सब रिश्ते-नाते परस्पर विरोधी है, और दो विरोधी तत्व एक व्यक्ति में कैसे घटित हो सकते हैं? उक्त शंका एवं भ्रम का समाधान अपेक्षाबाद में है। अपेक्षावाद वस्तु को विभिन्न अपेक्षाओं, दृष्टि बिन्दुओं से देखता है। इसके लिए वह 'ही' का नहीं 'भी' का प्रयोग करता है । जो बेटा है, वह सिर्फ किसी का बेटा ही नहीं, किसी का बाप भी है। वह सिर्फ किसी का चाचा ही नहीं, किसी का भतीजा भी है । यही बात 'मामा' आदि के सम्बन्ध में है । यदि हम 'ही' को ही पकड़ कर बैठ जाएँगे, तो सत्य की रक्षा नहीं कर सकेंगे । एकान्त 'ही' का प्रयोग अपने से भिन्न समस्त सत्यों को झुठला देता है, जब कि 'भी' का प्रयोग अपने द्वारा प्रस्तुत सत्य को अभिव्यक्ति देता हुआ भी दूसरे सत्यों को भी बगल में मूक एवं गौण स्वीकृति दिये रहता है। अतः किसी एक पक्ष एवं एक सत्यांश के प्रति एकान्त अन्ध आग्रह न रख कर उदारतापूर्वक अन्य पक्षों एवं सत्यांशों को भी सोचना-समझना और अपेक्षापूर्वक उन्हें स्वीकार करना, यही है श्रमण भगवान् महावीर का अनेकान्त दर्शन ।
भगवान् महावीर ने कहा किसी एक पक्ष की सत्ता स्वीकार भले ही करो, किन्तु उसके विरोधी जैसे प्रतिभासित होने वाले (सर्वथा विरोधी नहीं) दूसरे पक्ष की भी जो सत्ता है, उसे झूठलाओ मत। विपक्षी सत्य को भी जीने दो, चूंकि देश काल के परिवर्तन के साथ आज का प्रच्छन्न सत्यांश कल प्रकट हो सकता है, उसकी सत्ता, उसका अस्तित्व व्यापक एवं उपादेय बन सकता है--अतः हमें दोनों सत्यों के प्रति जागरूक रहना है, व्यक्त सत्य को स्वीकार करना है, साथ ही अव्यक्त सत्य को भी हां, देश, काल, व्यक्ति एवं स्थिति के अनुसार उसकी कथंचित् गौणता, सामयिक उपेक्षा की जा सकती है, किन्तु सर्वथा निषेध नहीं ।
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भगवान् महावीर का यह दार्शनिक चिन्तन सिर्फ दर्शन और धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, किंतु संपूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला चिन्तन है। इसी अनेकान्त दर्शन के आधार पर हम गरीबों को, दुर्बलों को और अल्प संख्यकों को न्याय दे सकते हैं, उनके अस्तित्व को स्वीकार कर उन्हें भी विकसित होने का अवसर दे सकते हैं। आज विभिन्न वर्गों में, राष्ट्र-जाति-धर्मों में जो विग्रह, कलह एवं संघर्ष हैं, उसका मूल कारण भी एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक आग्रह एवं हठ है। अनेकान्त ही इन सब में समन्वय स्थापित कर सकता है। अनेकान्त संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है, उदार बनाता है । और, यह विशालता, उदारता ही परस्पर के सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल प्राण है।
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अनेकान्तवाद वस्तुतः मानव का जीवन-धर्म है, समग्र मानव जाति का जीवन दर्शन है। आज के युग में इसकी और भी आवश्यकता है । समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकान्त के बिना चल ही नहीं सकेगा । उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती होगी, जब हमारा चिन्तन अनेकान्तवादी होगा। भगवान् महावीर के व्यापक चिन्तन की यह समन्वयात्मक देन -- धार्मिक सामाजिक जगत् में, बाह्य और अन्तर् जीवन में सदा-सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है। अस्तु, हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्वमंगल और जनमंगल की धुरी भी कह सकते हैं ।
विश्व-शान्ति का आधार अनेकान्त
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