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अपना स्थान बना लिया । व्यक्ति से परिवार परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और अन्त में स्वदेशी भुवनत्रयम्' के रूप में मानव चेतना की जो विस्तार यात्रा है, उसके मूल में येन-केन रूप में अहिंसा का मधुर स्निग्ध राग अनुगुंजित है।
मैं पूर्व में कह आया हूँ कि संसार की बड़ी-बड़ी सभ्यताओं में से, जो कालक्रम से बहुत पुरानी हैं-- एक भारतीय संस्कृति ही अभी तक जीवित बची है। अगर अहिंसा दर्शन के माध्यम से अपनी परम्परा को समझने का प्रयत्न किया जाए, तो इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवमात्र के प्रति कल्याण की भावना बन्धुता की उदारता, भारतीय मनश्चेतना का ही प्राण है। हमारे ऋषि-मुनिजनों के द्वारा समय-समय पर किया गया "बान्धवाः प्राणिनः सर्वे" का ब्रह्मनाद ही भारत की श्रेष्ठता का प्रधान रहस्य है । इसके सिवा और क्या है, भारत की जन-कल्याणी ज्योतिर्मयी सभ्यता की अस्मिता ?
मिश्र की सभ्यता की महत्ता का पता पुरातत्त्ववेत्ताओं की लेखबद्ध सूचनाओं एवं चित्र लेखों के अध्ययन द्वारा ही पाया जा सकता है। बेबिलेनियम साम्राज्य अपनी आश्चर्यजनक वैज्ञानिक उपलब्धियों, सिचाई व इंजी नियरी काल के साथ आज खण्डहरों के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया है। महान रोमन संस्कृति अपनी राजनीतिक संस्थाओं और कानून व समानता के सिद्धान्तों के साथ अधिकांश में आज भूतकाल का ही एक चर्चणीय विषय रह गयी है। किन्तु आश्चर्य है, भारतीय सभ्यता के सम्बन्ध में इतिहास- वेत्ताओं को कि महाकाल के अनेक भीषण वज्राघातों को, तूफानों को, उतार-चढ़ावों को सहन करते हुए आज भी जीवित है, आज भी अपनी अनेक आदर्श विशेषताओं को अक्षुण्ण रखे हुए है और ऐसा क्यों है ? इतिहास और दर्शन शास्त्र के गवेषक अगर ध्यान से । देखें, तो उन्हें साफ पता चल जायगा कि भारतीय संस्कृति विनाश की संस्कृति नहीं विकास की संस्कृति है; संहार की संस्कृति नहीं; उद्धार की संस्कृति है । अतएव वह अपनी धरोहर को बचाकर मानवजाति को अभ्युदय एवम् निःश्रेयस के विकास क्रम में ले जाना चाहती है।
अहिंसा भारतीय जन-मानस में अपनी परम्परा और प्रगति के प्रति एक विशेष गुण के रूप में अवस्थित है । यह उसकी श्रद्धा भावना है। अगर बहुत स्पष्ट रूप से कहा जाय तो यह राष्ट्र की चारित्रिक विशेषता है । परम्परा का निरन्तर अनुसरण करते रहना, हमारी एक विशिष्ट मनोवृत्ति है अर्थात् युगों तक बराबर प्रचलित प्रथाओं के अन्दर एक प्रकार की आग्रह-पूर्ण भक्ति । जब तब नयी संस्कृतियों से सामना हुआ अथवा नवीन ज्ञान आगे आया, भारतियों ने सामयिक प्रलोभन की अधीनता स्वीकार किये बिना अपने परम्परागत विश्वास को दृढ़तापूर्वक पकड़ कर स्थिर रखा । यही कारण है कि नानाविध झंझावातों को झेलते रहने के बावजूद भारतवर्ष की मिट्टी से अहिंसा-रूपी महान् दर्शन की सौंधी गंध अभी भी दिग्दिगन्तों में व्याप्त रही है ।
अहिंसा की जीवन यात्रा में यहाँ तक बहुत कुछ ठीक है, उपादेय है । किन्तु खेद है, अहिंसा कुछ ऐसे प्रश्नों से भी घिर गयी है, जो उसकी महत्ता को धूमिल करने लगे हैं। कैसा भी उच्चतम सिद्धान्त हो, जनमानस के अबोध की कुछ भान्तियां उसका पीछा करने ही लगती हैं।
इस सम्बन्ध में खास बात यह है कि वस्तुतः जो सूक्ष्म है, यदि उसे कोई स्थूल रूप दे दिया जाता है, तो उसकी प्राणवत्ता समाप्त हो जाती है । यही बात अहिंसा के संबंध में भी है। अहिंसा मात्र लोकाचाररूप बाह्य व्यवहार का स्थूल विधि-निषेध नहीं है, अपितु वह अन्तर्-चेतना का एक सूक्ष्म दिव्य भाव है। परन्तु कालक्रम से दुर्भाग्यवश कुछ ऐसी स्थितियां बनती गयीं कि अहिंसा का मूल तात्पर्य बहुत कुछ धूमिल हो गया, एक कोने में सिमट कर रह गया और वह स्थल व्यवहार के सामान्य विधि-निषेधों में फंसकर रह गयी। फलत: अहिंसा की ऊर्जा और प्राणवत्ता सिद्धान्त की थोथी शब्दावलियों के भीतर आवद्ध होकर रह गयी। यह इतिहास का अनुभव प्रमाण है कि जब किसी सिद्धान्त की ऊर्जा और प्राणवत्ता व्यावहारिक चिन्तन से विलय होने लगती है, तो उसकी तेजस्विता समाप्त हो जाती है और उससे विकास तो दूर की बात एक निर्जीव-सा समस्याग्रस्त वातावरण निर्मित होने लगता है। उत्थान के स्थान में पतनशील वृत्तियाँ जन्म लेने लगती हैं। फिर वह दर्शन जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं खोज पाता और एक दिन स्वयं ही एक समस्या बन जाता है। अहिंसा जसे महान मानवीय दर्शन के सम्बन्ध में भी ऐसी ही स्थितियाँ उत्पन्न हुयी है। सहस्राब्दियों से चली आ रही इस दार्शनिक चेतना के व्याव श्रमण-संस्कृति में : अहिंसा-दर्शन
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