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राजर्षि प्रसन्नचन्द्र जैसे साधक बाहर में निवृत्तिरूप अहिंसा के उच्च शिखर पर पहुँचे हुए भी अन्दर की हिंसावृत्ति के फलस्वरूप सप्तम नरक तक की यात्रा पर चल पड़ते हैं और पुनः अहिसा की धारा के प्रवहमान होते ही अनन्तज्ञान की कैवल्य भूमि पर विराजित हो जाते हैं । स्पष्ट है, यह खेल मूलतः अन्तर्मन का है । अहिंसा सम्बन्ध बाहर के विधि - निषेध, देश, काल तथा व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप साध्य हैं। पर इतना ही सब कुछ नहीं है । अहिंसा का मूल स्रोत अन्ततः अन्तर्जगत् में है, व्यक्ति की भावना में है; इसे नहीं भूलना चाहिए ।
चिन्तन के इस भाव - बिन्दु पर इधर-उधर के हिंसा-अहिंसा सम्बन्धी दुराग्रह स्वतः समाप्त हो जाते हैं और अहिंसा कि अन्त:सलिला का माधुर्यमय भाव-प्रवाह समाज की पवित्र संरचना में देश कालानुरूप अपना महान् योगदान देना प्रारम्भ करता है। जीवन के गहन गंभीर तल में तब सब कुछ सहजावस्था के केन्द्र पर पहुँच जाता है और तब अहिंसा जीवन का महान् वरदान बन जाती है। ऐसा वरदान, जिसकी समकक्षता में न धरती पर कोई है, और न आकाश में । सत्य, अस्तेय आदि सभी धर्म इसी एक धर्म में समाहित हो जाते हैं । इसी भावना को लक्ष कर भगवान् महावीर का उपदिष्ट एक धमसूत्र आज भी आचारांग सूत्र १।५।५ में उपलब्ध है :
"तुमंस नाम तं चैव जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमंस नाम तं चैव जं अज्जावेयन्वं ति मन्नसि; तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि । "
-- जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है ।
महाप्रभु महावीर की इसी विराट विश्वात्म भावना को अपने शब्दों में अवतरित करते केवली चतुर्दशपूर्वविद् आचार्य शय्यभव ने दशर्वकालिक सूत्र में कहा है:
" सव्वभूवप्प भूयस्स, पावकम्मं न बंधई।"
-- विश्व की सब आत्माओं को अपनी आत्मा के समान समझनेवाले को पापकर्म का बन्ध नहीं होता ।
श्रमण-संस्कृति में महिला दर्शन
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इस दृष्टि से अहिंसा का यथार्थ भाव है, विश्व की समग्र आत्माओं को अपनी आत्मा के समान समझने वाले को पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
हुए द्वितीय श्रुत
इस दृष्टि से अहिंसा का यथार्थ भाव विश्व की समग्र आत्माओं को अपने समान समझना है, फलतः उनके साथ अपने जैसा व्यवहार करना है। हम अपने लिए जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से चाहते हैं एवं जिस स्थिति की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, वैसा ही व्यवहार हमें समस्त प्राणियों के लिए करना चाहिए। अहिंसा की इस विश्वात्मक स्थिति को जो साधक यथोचित रूप से हृदयंगम कर लेता है, वह संसार में रहते हुए भी, जीवनयात्रा के लिए विवेक-पूर्वक आवश्यक कर्म करते हुए भी पापकर्म से लिप्त नहीं होता। पाप का मूल द्वैतभाव में है, अद्वैत भाव में नहीं । अहिंसा का चरमोत्कर्ष विश्वात्माओं के अद्वैत भाव में है; अतः वहाँ कहाँ पापकर्मकालुष्य है । अहिंसा की पावन गंगा में तो बिन्दु-बिन्दु में पावनता का अमृत है ।
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