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अनुकूल एवं प्रतिकूल के द्वन्द्व-चक्र में से ही रागद्वेष का जन्म होता है पर कब होता है ? तब होता है, जब व्यक्ति उसके हानि-लाभ सम्बन्धी गुण-दोषों के विश्लेषण में ग्रस्त हो जाता है । नियति का दर्शन उक्त ग्रस्तता से बचाता है । मानसिक चिन्तन की यह एक ऐसी ऊंचाई है, जहाँ साधक किसी के द्वारा अपने विरुद्ध कार्य होने पर न तो उसके प्रति द्वेष करता है और न अपने द्वारा अच्छा किये जाने पर अपने प्रति श्रेष्ठता के अहं का राग ही करता है। वह सर्वत्र समभाव से अवस्थित होता है --अनाकुल, अनुद्वेलित, अक्षुब्ध और अस्तब्ध ह है । यही वेदान्त की ब्राह्मी स्थिति है, जैन दर्शन की वीतराग अवस्था और बौद्ध दर्शन की विपश्यना स्थिति है ।
समस्त प्राच्य दर्शन-शास्त्रों के बन्धन मुक्ति की दिशा में अन्ततः यही मन्तव्य हैं कि आत्मज्ञानी को, प्रबुद्ध साधक को कर्ताभाव त्याग कर द्रष्टाभाव में अवस्थित होना है। जो हो रहा है, वह उसका एक तटस्थ दर्शक है, जिसके मन-वचन में कहीं भी विषमता नहीं है। समयानुरूप शुभाशुभ के प्रतिकार एवं स्वीकार में कहीं भी लिप्तता नहीं है। कर्म और कर्मफल के साथ कर्तत्व एवं भोक्तृत्व के अहंकार का वहाँ विसर्जन हो जाता है, अतः यथाप्राप्त कर्म और कर्मफल के गहरे जल में रह कर भी वह कमल के समान निलिप्त भाव से अवस्थित है । समस्त मानसिक तनावों से सभी भाँति मुक्त रहने की अपने में यह अमोघ दार्शनिक प्रक्रिया है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि नियति के इस सिद्धान्त से तो मनुष्य के कर्म करने की स्वतंत्रता ही समाप्त हो जाती है । जब नियति से ही क्रमबद्धता के रूपमें सब-कुछ होता है, तब मनुष्य के अधिकार में क्या रह जाता है ? वह कर्म क्यों करेगा? जो होना होगा, वह स्वतः हो जाएगा। यह तो स्पष्ट ही निष्क्रि यता का कर्तव्य विमुखता का अघोषित सिद्धान्त है, जो जन-मंगल के अभ्युदय एवं निःश्रेयस का प्रतिरोधी है।
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प्रश्न ऊपर से गहरा लगता है । परन्तु तत्त्वत: बिल्कुल उथला हुआ है यह प्रश्न । व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन तो तब होता जब कोई बाहर का ईश्वर या अन्य कोई कर्ता माना जाता। परन्तु यहाँ तो दुसरे का कर्तृत्व किसी भी अंश में स्वीकार्य नहीं है । यहाँ तो स्वयं का कर्तत्व स्वयं में ही नियत है । नियति अन्य की नहीं; अपनी है। हर द्रव्य की अपनी एक नियति है वह द्रव्य से भिन्न नहीं है। अतः जैन दर्शन के अनुसार मानव स्वयं स्वयं का कर्ता, स्रष्टा है, स्वयं का ईश्वर स्वयं है । जल से उद्भूत होने वाली तरंग जल की ही तो होती है । जैन दर्शन की तत्त्वदृष्टि में हर द्रव्य स्वयं में प्रत्येक क्षण एक पूर्ण एवं अखण्ड इकाई है, वह अपनी परिधि में सर्वतंत्र स्वतंत्र है। द्रव्य में जो भी कार्य व्यापार घटित होते हैं, वे द्रव्य की अपनी सत्ता में से उद्भूत होते हैं। जो कुछ होता है, वह सब मूलतः भीतर से घटित होता है। बाहर में से किसी अन्य के द्वारा उसमें गुणाधान नहीं होता । अतः नियतिवाद में स्वतः संभूत कर्म से इन्कार नहीं है; इन्कार है उसके कर्ता होने के अहं से । ज्ञानी सहज भाव से कहता है— हो रहा है, और अज्ञानी दर्प से कहता है-- मैं कर रहा हूँ । ज्ञानी की दृष्टि में कहीं मैं नहीं है और अज्ञानी की दृष्टि में सर्वत्र मैं-मैं-मैं की एक कुरूप छवि सदा छायी रहती है । नियति कर्म के विसर्जन के लिए नहीं, अपितु कर्म के आगे-पीछे जो विभाव परिणति का हेतु कर्म के कर्तत्व का अहम् भाव है, उसका विसर्जन है । जब हम कर्तव्य कर्म को और उससे प्राप्त होने वाले फल को होने के रूप में स्वीकार लेते हैं, तो सहज ही, कर्म और कर्म के भोग से बन्धनरूप में होने वाली लिप्तता समाप्त हो जाती है। इस प्रकार माधर्यमयी ऋजु • संकल्प की भावधारा समाहित करने में नियतिवादी मान्यता साधक की अन्तश्चेतना में सत्यानुप्राणित नवीन तथ्यों को उजागर करती है एवं कर्म के क्षेत्र में वैविध्य के अतिसंकुल परिवेश में स्वयं प्रदान करती है। नियतिवादी दृष्टि वह विमुक्त दृष्टि है, जिसमें किसी भी प्रकार की रागात्मक प्रीति एवं आसक्ति, घृणा एवं द्वेष तथा संत्रासजन्य शंकाकुल मनःस्थितियाँ अपना स्थान नहीं पाती और न चित्त में किसी भी प्रकार की उद्विग्नता, चंचलता एवं बाधा ही उत्पन्न करती है ।
नियतिवाद मनुष्य की तमाम कुण्ठाओं को विसर्जित करता है। जीवन को सभी प्रकार के तनाव एवं द्वन्द्व से मुक्त करता है । मनुष्य को कर्ताभाव त्यागने का पावन सन्देश देता है और कर्म के प्रांजल स्वरूप को ज्ञानोन्मेष में उद्घाटित करता है। होनी ही होती है। अनहोनी न कभी हुई हैं, न कभी होगी। शान्त चित्त से प्राप्त कर्म कीजिए। यदि उसे होना है, तो समय पर हो जाएगा और यदि उसे नहीं होना है, तो न होगा। साधक को अनुकूल या प्रतिकूल दोनों ही परिणामों के लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए किसी भी प्रकार की आकुलता की आव श्यकता नहीं है। आकुल हो कर तो कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। आकुलता से तो प्राप्ति या अप्राप्ति
सागर, नौका और नाविक
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