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प्रायः यह भी देखा जाता है कि स्वप्नावस्था में भी भावी घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। घटनाओं के घटित हो जाने के बाद अक्सर लोग कहा करते हैं कि-मुझे इसका आभास अमुक रात्रि को स्वप्न में हो गया था। घटना के घटित होने के बाद क्या, पहले ही सम्बन्धित व्यक्तियों को सूचित कर दिया गया है कि ऐसा होने वाला है। और वह वैसा ही हुआ है। लोग आश्चर्यचकित रह गये हैं। यह मेरा भी अनेक बार का प्रत्यक्ष सिद्ध व्यक्तिगत अनुभव है।
प्रश्न है, यह कैसे संभव है ? प्रश्न साधारण नहीं है। बहुत गंभीर है। घटना के घटित होने के पूर्व उसका आभास हो जाना, स्वप्न में चलचित्र की तरह उस अनस्तित्व के अस्तित्व का उभर आना कैसे संभव है ? इसका मूलाधार क्या है? कारण से ही कार्य होता है। अकारण कुछ नहीं है। अतः स्पष्ट ही प्रश्न खड़ा हो जाता है कि जब भावी घटना के घटित होने का कहीं-कोई दृष्ट सूक्ष्म कारण है ही नहीं, तो फिर वह पूर्व में ही कैसे दृष्टिगोचर हो गयी? इसका एकमात्र उत्तर-नियति है। हर द्रव्य की अपने ही अन्दर की एक नियति है। क्रमबद्ध पर्यायों का अखण्ड शृंखला-सूत्र हैं।
जैन-दर्शन में हर द्रव्य को, हर जड-चैतन्य व्यक्ति को अनन्तानन्त गुण-पर्यायों का अखण्ड पुंज माना गया है। द्रव्य में पर्यायों का प्रवहमान एक अनन्त प्रवाह है और वे सब पर्याय परस्पर क्रमबद्ध हैं। अर्थात् वे एक के बाद एक क्रम से उद्भूत होती रहती हैं। प्रथम क्षण में उद्धृत होने वाले पर्याय एवं विवर्त दूसरे या तीसरे क्षण में नहीं होते। और न दूसरे या तीसरे आदि क्षणों में उद्भत होने वाले हठात् प्रथम क्षण में होते हैं। इधर-उधर का कुछ भी हेरफेर नहीं होता। पहले फूल होता है, तत्पश्चात् फल। ऐसा नहीं होता कि पहले फल हो जाएँ, तत्पश्चात् फूल खिलें। प्रकृति में भी क्रमभंग जैसी कोई स्थिति नहीं है। सर्वत्र क्रमवाद का अखण्ड राज्य है।
यवनिका के पृष्ठ भाग में सारे पात्र पहले से प्रस्तुत हैं। अभिनय के क्रम में रंगमंच पर जब भी जिनकी उपस्थिति अपेक्षित होती है, नियमानुसार उनका आगमन होता है और वे अपनी नियत भूमिका अदा करते हैं। कार्यानन्तर पुनः यवनिका के पृष्ठभाग में चले जाते हैं। दर्शन की भाषा में यह शक्ति से व्यक्ति का, तिरोभाव से आविर्भाव का एक अभेद्य क्रम है। समुद्र में तरंग उठती है, फिर उसीमें विलीन हो जाती है, उसी प्रकार हर द्रव्य एक सागर है, जिसमें पर्यायों का आविर्भाव और तिरोभाव निरन्तर होता रहता है। भविष्य के पूर्वाभास के संबंध में भी यह स्वीकार करना होगा कि वह पहले से ही पूर्णरूप से निर्धारित, स्थिर एवं निश्चित स्थिति है, और उसका आधार नियति है, पर्यायों की क्रमबद्धता है। हम व्यवहार से काल का भूत, वर्तमान और भविष्य तीन कालों में विभक्त करते है, अन्यथा वह एक अविभक्त अखण्ड है। अतः आने वाला जो भविष्य वर्तमान में रूपान्तरित होने वाला है, वह साधारण मानव की परिकल्पना में भले ही नहीं आता हो, परन्तु वह तत्त्वत: पहले से ही द्रव्य की सत्ता में है। अतएव सिद्धान्ततः यह मानना होगा कि भवितव्यता का अगोचर संसार नियति के द्वारा निर्मित है। काल की प्रवहमान धारा में यथावसर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव होता रहता है। यह तत्त्वदृष्टि ही प्राज्ञ मानव को जीवन की उद्वेगजनक समस्त शंका-कुशंकाओं से मुक्त करती है। अन्यथा करने और कराने के अभिमान में मानव मन अधिकाधिक अशान्त एवं उद्विग्न होता जाएगा, उसे अभीष्ट शान्ति कथमपि प्राप्त न हो सकेगी। चिन्तन के इन्हीं क्षणों में अध्यात्म-दर्शन के आचार्यों का एकमत से यह महास्वर मुखरित हुआ है--"अहं करोमीति वृथाऽभिमानः।"
जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार नियतिवाद मानव मन को निर्भय और निर्द्वन्द्व बनाता है। ज्ञान के उच्चतम शिखरों पर आरोहण कर जाने में नियतिवाद का यह भाव साधक को सहायता प्रदान करता है। सत्य के चिन्तन की यह एक ऐसी अवस्था है, जहाँ प्राज्ञता के कालातीत अध्याय जुड़ते हैं, जो साधक को समत्व योग के निकष पर चढ़ाकर शक्तिमान बनाते हैं। जन-दर्शन की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में दिव्यतम जीवन की उपलब्धियों की वे प्राज्ञरश्मियां प्रस्फुटित हुई हैं, जिनसे आर्यावर्त की चिन्तन-परम्परा गौरवान्वित हुई है। यह एक ऐसी अवस्था है, जो साधक को शुभाशुभ के परिधियों से बाहर ले आती है। इस ज्ञानमय स्थिति में किसी भी राग-द्वेष की आकुलता साधक को विचलित नहीं करती, उसके सम्मुख विघ्न-बाधाओं की जितनी भी पर्वत श्रेणियाँ उपस्थित होती हैं, वे सारी की सारी उसके विराट् समत्वभाव में समाहित हो जाती हैं। अतः काल के परिवर्तनचक्र का उद्दाम वेग उसे कहीं से भी आन्दोलित नहीं करता।
नियति का सर्वतोष दर्शन
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