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इस दृष्टि से जैन दर्शन भारतवर्ष का वह दर्शन है, जो संसारी आत्माओं को कुष्ठाग्रस्त होने से, हीनभाव के कारण विग्भ्रमित होने से और इसके फलस्वरूप विकास के उन्नत एवम् ऊर्ध्वमुख मार्गों को अवरुद्ध होने से बचाता है । और पतनोन्मुखी निम्न वृत्तियों एवम् प्रवृत्तियों को चैतन्यावस्था के उच्चतर शुद्ध आयामों की ओर बिना किसी द्वैतभाव के आरोहण कर पाने की प्रेरणा देता है। भगवान् महावीर ने धरती पर के समग्र मानवसमाज को आत्मा के यथार्थ स्वरूप पर विचार प्रदान करते हुए कहा है कि "परमात्मज्योति हर व्यक्ति में निहित है। प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन की ज्योति से युक्त है। वह अनन्त सुखमय है और अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। जो भी कुछ उसका अपना ईश्वरत्व है, वह सब उसके भीतर ही है । बाहर में उसकी खोज व्यर्थ है । आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि उस अन्तर्-ज्योति को अन्तर्मुख साधना के द्वारा प्रज्वलित किया जाए। विकारों के आवरण से आच्छादित आत्मा को निरावरणस्वरूप परमात्मतत्त्व से परिचित कराया जाय, ताकि उसका परमात्मरूप शुद्ध स्वरूप एवम् निर्मल स्वभाव पूर्णतया प्रकट हो सके, निरावरण हो सके।"
उक्त स्थिति में पहुँचते ही तमस् के सभी आवरण दूर हो जाते हैं और सच्चिदानन्दता के सभी द्वार अपनेआप खुल जाते हैं और जीव ईश्वर के रूप में परिवर्तित हो जाता है, अथवा दर्शन की भाषा में यों कहिए कि परमात्मरूप अपने मूल स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है। जैन दर्शन की अध्यात्म चेतना जब इतनी उन्नत अवस्था में है, तब उसे निरीश्वरवादी कहना भ्रान्तिपूर्ण मंतव्य के सिवा और क्या हो सकता है ? जैन दर्शन स्पष्टरूप से विश्व मानव को कहता है कि अन्तर्यात्रा के द्वारा बाहर के बिसराव से निजत्व के केन्द्र की ओर मुड़ो। क्योंकि उसे इस बात का पता है कि साधारणतया किसी व्यक्ति या समाज का बिखराव एवम् विघटन इस कारण से होता है कि वह नयी चुनौतियों का सामना करने में पर्याप्त सक्षम नहीं होता। वह अपने को क्षुद्र, तुच्छ एवम् बिलकुल नाचीज समझे रहता है। फलतः उसकी आत्मशक्ति का तेज धूमिल रहता है। अतएव उसकी आत्म-शक्ति को ज्योतिर्मय प्रगतिशील अवस्था में लाने की आवश्यकता है, जो क्षुद्रता की दुर्बल मनोवृत्ति के कारण दयनीय स्थिति में पड़ी हुई है। जैन दर्शन की ईश्वरवादी धारणा यही है कि मानव की उन्नति के क्रम में कोई अन्य सहायक नहीं है वह स्वयं ही स्वयं का सहायक है, उद्धारक है। किसी भी अंश में परमुखापेक्षिता उसे मान्य नहीं है। अतः स्वयं को ही सबल, सक्षम एवं उदात्त गुणों से परिपूर्ण करने की आवश्यकता है, जिससे समय के उलटे सीधे थपेड़े खाकर कोई भी मानव आस्थाहीन न बन सके। जैन परम्परा हर क्षण सहज स्वैच्छिक निष्ठा बनाये रखने पर बल देती है और निर्विवाद रूप से युग-युग की भ्रान्त धारणाओं में प्रतिबन्धित प्रतिभाओं के लिए शुद्ध आस्तिक भावना के साथ मुक्ति का द्वार खोल देती है।
वस्तुतः सत्यान्वेषी साधक ही अपने अन्तःस्थ ईश्वरत्व के महिमामण्डित पवित्र प्रदेश तक पहुँच सकता है। अतएव विश्व के हर साधक को द्वन्द्वमुक्त हो कर सर्वतोभावेन इसी आन्तरिक अमृत तत्व को उपलब्ध करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत मुक्त चिन्तन के प्रकाश में जैन दर्शन अपनी पूरी आस्था अन्तःस्य ईश्वरत्व के प्रति व्यक्त करता है और मानव मन के चिन्तन को हीन भावना से क्षतिग्रस्त होने से बचाता है । वह साफ कहता है कि इन्द्रियबोध की उत्तेजना, विचारों की उथल-पुथल, मनोभाव की उमड़-घुमड़ और इच्छाओं के अनर्गल स्पन्दन से दूर हटकर अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित होने की आवश्यकता है । चेतना के सामान्य स्तर से ऊपर उठते ही अन्दर में ईश्वरत्व की उपलब्धि हो जाती है।
सिर्फ धार्मिक अथवा दार्शनिक दृष्टिकोण से ही नहीं, जैन दर्शन की यह आत्मा को ही ईश्वरत्व की मान्यता समूची मानवजाति की सामाजिक चेतना की धारा को भी विकासोन्मुख दिशा में प्रेरित एवम् उत्साहित करती है। उसकी ईश्वर-सम्बन्धी यह अवधारणा मानव मन में सार्वभौम भ्रातृत्व की उदात्त एवम् उदार भावना को जागृत करती है और समस्त जीव सृष्टि के प्रति ऐक्यानुभूति उत्पन्न करती है। उसका यह दार्शनिक चिन्तन, एक ऐसी योजक शक्ति है, जो मानव समाज की एकता को सुदृढ़ बनाती है, देश, काल, जाति, पंथ आदि के क्षुद्र भ्रमों से उत्पन्न भेदभावना, तज्जन्य जातीय असहिष्णुता एवम् कट्टर धर्मान्धता आदि की हठधर्मिता एवम् दुराग्रह के मानसिक रोग से मनुष्य को मुक्त करती है। मानवजाति का उपलब्ध इतिहास हमें बताता है कि एक सर्वोपरि स्वच्छन्द शासक के रूप में प्रचारित ईश्वर-सम्बन्धी अवधारणाओं ने मानव को एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु और आक्रामक बनाया है। ईश्वर, ख़ुदा और गोड आदि ईश्वरों के नाम पर धरती पर मानव का इतना रक्त बहा है, जितना कि दुनियावी स्वार्थों के कारण होने वाले युद्धों में भी नहीं । धर्मयुद्धों का इतिहास बड़ा ही भयंकर है। दोआत्मा व परमेश्वरः
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