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अतः एकमात्र यह मानकर चलना कि शस्त्र-मात्र हिंसा का ही साधन है, नितान्त गलत है। हिंसा शस्त्र में नहीं, उसके प्रयोग करने के समय जिस प्रकार की भावना है, उसमें निहित है। इसलिए आततायियों के उपद्रवों से, आक्रमणों से अपने को एवं अपने देश को बचाने के लिए तलवार का आविष्कार हुआ। आपको आश्चर्य होगा कि भगवान ऋषभदेव ने असि, मसी एवं कृषि--इन तीनों कर्मों में असि की गणना सर्व-प्रथम की। उन्होंने कर्मभूमि के मानव को सबसे पहले यह सिखाया कि अपने सत्त्व की रक्षा के लिए तैयार रहो। जो अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता, वह और कुछ भी नहीं कर सकता। सामाजिक, पारिवारिक एवं राष्ट्रीय जीवन की यह वह महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, जिसे भगवान् ऋषभदेव ने सर्वप्रथम स्पर्श किया था।
उस महामानव ने मसी-कर्म और कृषि-कर्म भी सिखाया। मसी का अर्थ है--स्याही, परन्तु उसका व्यापक अर्थ है--लेखन-कला, चित्र-कला, वाणिज्य (व्यापार) आदि कार्य । और कृषि का अर्थ है-खेती। इसमें शिल्पकला एवं बढ़ई, सुनार, लहार आदि के औद्योगिक कार्य भी समाविष्ट हैं। जिसे आज की भाषा में औद्योगिकक्रान्ति कहते हैं या हरित-क्रान्ति कहते हैं, वह सर्व-प्रथम उस आदि पुरुष ने की। अब प्रश्न यह है कि यह उपदेश पाप था या पुण्य था? आज इसका उत्तर देना है, आज नहीं तो कल देना होगा। यदि इसका सही ढंग से, यथार्थ रूप से उत्तर नहीं दिया जा सका, तो जैन-समाज प्रगति के क्षेत्र में पिछड़ जायगा और मच्छरों की तरह एक कोने में दुबक कर भिनभिनाता रह जायगा। संसार में उसकी आवाज एवं उसका अस्तित्व समाप्त हो जायगा।
कुछ परम्परावादी एवं जड़-क्रियाकांडी साधु कहते ह कि कृषि-कम महा हिंसा का कार्य है। भगवान् ऋषभदेव के इन अन्तर् नेत्रहीन अनुयायियों ने अपनी पूरी ताकत लगा कर एक बहुत अभद्र आवाज लगानी शुरू कर दी कि कृषि महारंभ है, महापाप है। इससे बढ़कर और कोई पाप नहीं है। यह नरक में ले जाने वाला है। जब समाज में अज्ञानता छा जाती है, जड़ता आ जाती है, विवेक की आँखें बन्द हो जाती हैं, यथार्थ को समझने की दृष्टि ही नहीं रहती है, तब इस तरह की घोषणाएं की जाती हैं। और ये नासमझी की घोषणाएँ ही समाज को ले डूबती हैं। यदि कृषिकर्म और लुहार, बढ़ई, सुनार आदि के शिल्प-कर्म महारंभ एवं महापाप थे, तो मैं पूछना चाहता हूँ कि उक्त कर्मों का प्रथम उपदेष्टा, प्रथम शिक्षक, पवित्र महापुरुष कैसे रहा? आप उसे किस आधार पर वन्दन करते हैं ? महापाप का उपदेष्टा भी महापापी होता है। संयम स्वीकार कर लेने से उस विराट् पुरुष का वह हितप्रद उपदेश नष्ट नहीं हो गया। उनके द्वारा उपदिष्ट कर्म आज भी चल रहे हैं। बताइए, यह पाप-कर्म किस स्वार्थ से प्रेरित हो कर किया? उक्त कर्मोपदेश में भगवान का निजी स्वार्थ कुछ भी नहीं था, वह सब प्रजा के हित के लिए था। जहाँ हितबुद्धि है, वहाँ पुण्य है, पाप नहीं है, पाप है केवल अज्ञानियों के मन-मस्तिष्क में। आगम के पृष्ठों पर आज भी उक्त दिव्य उपदेश का हित-हेतु सुरक्षित है कि उस महापुरुष ने जो कुछ कहा था, वह प्रजा के हित के लिए कहा था--"पयाहियाए उवदिसइ।" प्रजा के हित के लिए, जन-जन के कल्याण क लिए किया गया कार्य कदापि महापाप का कार्य नहीं हो सकता। यदि आपको वीतराग-वाणी पर जरा-सी भी श्रद्धा है, थोड़ा-सा भी विश्वास है, तो आपको अपनी गलत धारणाओं को, रूढ़ एवं अन्ध मान्यताओं को, परम्परागत चले आ रहे मिथ्या विचारों को बदलना होगा, उनके व्यामोह को त्यागना होगा। अन्यथा भगवान ऋषभदेव के प्रति तो क्या, चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर के प्रति भी आप निष्ठावान नहीं रह सकेंगे।
भगवान महावीर का कथन है कि जिस कार्य में हित की भावना है, वह पुण्य है। पूण्य और पाप किसी भी कार्य में नहीं हैं। जो कार्य हाथों से किया जाता है, पैरों से किया जाता है, या आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि इन्द्रियों से किया जाता है, वह पाप है या पुण्य, यह एकान्त रूप से कथन करना गलत है। भले ही कृषि-कर्म हो या अन्य कर्म हो, वह स्वयं में पाप-पुण्य नहीं है। इन्द्रियाँ जड़ हैं, उनमें से न पाप आता है और न पुण्य । पापपुण्य का जो भी प्रवाह आता है और बंध होता है, वह व्यक्ति के अपने विचार में से, बुद्धि में से एवं भावना में से ही आता है। यदि मानव के मन में दूसरे का अहित करने की दुर्भावना है, दुर्बुद्धि है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य भले ही बाहर से अच्छा परिलक्षित होता हो, फिर भी वह पाप का कारण है। यदि बाहर में थोड़ीबहुत हिंसा दिखाई देती हो, फिर भी मनुष्य के मन में हित बुद्धि हो, तो वह कार्य पुण्य का हेतु है। भगवान् महावीर की भाषा में भगवान् ऋषभदेव ने स्पष्ट ही जन-हित के लिए, प्रजा के कल्याण के लिए कृषि-कर्म आदि का उपदेश दिया था, इसलिए उसमें पाप आयेगा कहाँ से? वे ही लोग इस प्रकार की गलत परिकल्पनाएँ किया करते हैं, जिन्होंने
सागर, नौका और नाविक
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