Book Title: Rushibhashit Sutra
Author(s): Vinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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वहाँ ऋषिभाषित में उन्हें सद्गुणों के धारणरूप आन्तरिक पवित्रता का प्रतिपादक कहलाया गया है।
ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन में अर्हत् ऋषि देव नारद ने शौच को श्रोतव्य एवं सर्वःदुखों से मुक्ति का आधार बताते हुए निम्न चार प्रकार के शौच लक्षणों का उल्लेख किया है।
1. प्राणातिपात (हिंसा) से विरति
2. मृषावाद से विरति
3. अदत्तादान से विरति
4. अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरति ।
इसके साथ ही इस अध्याय में सर्वथा निर्ममत्व भाव रखने का निर्देश भी दिया गया है तथा यह कहा गया है कि साधक को सभी स्थितियों में समभाव रखना चाहिए। जो साधक शौच का पालन करता है, ममत्वभाव से रहित है और समभाव का आचरण करता है वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है। उसका पुनरागमन नहीं होता है।
ब्रिंग की मान्यता है कि ग्रन्थप्रणेता पर पार्श्व के चातुर्याम का प्रभाव स्पष्ट है, यही कारण है कि इसमें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक ही वर्ग में वर्गीकृत किया गया है। अहिंसा, सत्य आदि को शौच अर्थात् पवित्रता का आधार मानना यह सूचित करता है कि नारद मात्र बाह्य पवित्रता के ही प्रतिपादक नहीं थे, अपितु वे आन्तरिक पवित्रता का भी प्रतिपादन करते थे। ऋषिभाषित में नारद को निर्ममत्व, विरक्ति और विमुक्ति का प्रवक्ता भी कहा गया है। इस अध्याय के अन्त में साधक को सत्यवादी, दत्तभोजी और ब्रह्मचारी होने का निर्देश दिया गया है। ये आचाराङ्ग में उल्लेखित त्रियाम तो नहीं है ? यह विचारणीय है।
सामान्यतया अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तथा आन्तरिक पवित्रता और निर्ममत्व की अवधारणाएँ भारतीय परम्परा की सर्वमान्य अवधारणा थी । अतः हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि ऋषिभाषित में उल्लेखित नारद का यह उपदेश उनका वास्तविक उपदेश रहा होगा ।
यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि नारद का व्यक्तित्व जैन परम्परा में इतना प्रभावशाली रहा कि आगे चलकर नव बलदेवों और नव वासुदेवों की परिकल्पना के साथ नव नारदों की कल्पना भी कर ली गयी । औपपातिक में
ऋषिभाषित : एक अध्ययन 39