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उपकृत
श्री सियारामशरण गुप्त
अपने इस फर से उस कर ने पाया हो जो दान , दिया तुम्हारा था वह ऐसा, गया न जिस पर ध्यान | पौ फटती धुंधली वेला में भग में पग ये मन्द । गया न ध्यान कि गति में पाई सुगति कहाँ स्वच्छन्द । अन्तरिक्ष में दूर कहीं से पाया जो पालोक, जान पडा भीतर-बाहर ज्यो निज का ही प्रानन्द ! किया स्वय अपने को हमने उसका श्रेय प्रदान , दिया तुम्हारा था वह ऐसा, गया न जिस पर ध्यान ! xxx दिया प्रथम जिस प्रात पवन ने नव गति का उद्वोध , हो कैसे जीवन में उसके उस ऋण का परिशोध । वसा हुअा है तन में, मन में उसका सुरभि-पराग, फूंक गया वह घूम-पुज में घग्-धग् करती प्राग । अब इस दोपहरी में फिर-फिर देकर स्मृति-सस्पर्श , रक्षित रक्खे है वह मेरे चलने का अनुराग ! उसका भार-वहन देता है हलकेपन का बोध , ऋणी रहूँ चिरकाल, यही है उसका ऋण-परिशोध । चिरगांव ]