Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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की यापिकाओं, क्षीर सागर एवं स्वयंभूरमण समुद्र का जल भी लाया . गया। इस स्वच्छ निर्मल पवित्र जल से देवेन्द्र एवं देवों ने राज्याभिषेक किया। उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रभु के पावन शरीर का स्पर्श पाकर ही यह जल पवित्र हो गया है। श्री, ह्रीं एवं ति देवियों ने पप, महापा और तिगिछ सरोवरों से जल लाकर प्रभ का अभिषेक किया। पुनः कंकुम, कपूर, अगर, चंदन, प्रादि सुगंधित पदार्थों से मिले कषाय जल से अभिषेक किया। तदनन्तर पानी में पुष्पों का सार निकाल कर अभिषेक किया । अन्त में रत्नादि द्रव्यों से अभिषेक किया । अंगपोंछन कर दिव्य नवीन वस्त्रालंकार धारण कराये और नीरांजना उतारी । दिध्य रत्नखचित सिंहासनारूल होने पर नाभिराज बोले, "अब समस्त मुफुटबध राजाओं के अधिपति ये वृषभकुमार हैं, मैं नहीं।" इस प्रकार कह कर अपना मुकुट प्रभु के सिर पर धारण कराया अर्थात स्वयं हाथ से बांधा । राज्यलक्ष्मी का पट्ट बन्धन किया । तिलक लगाया। इसके सिवाय मासा, कुण्डल, कण्ठहार, करधनी एवं यज्ञोपवीस भी प्रभु ने धारण किये । इस समय वे साक्षात कल्पवृक्ष जैसे प्रतीत हो रहे थे। जय-जयकार और मंगलवादन से भू-अम्बर गूंज उठा । उसी समय इन्द्र ने हषित हो प्रानन्द नाटक किया।
पिता से राज्य प्राप्त कर सर्व प्रथम प्रजा की सृष्टि की । पुनः आजीविका के नियम बनाय तथा मर्यादा का उल्लंघन न हो इसके लिए नियम निर्धारित किये । स्वयं दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर शस्त्रविद्या सिखाई । यही क्षत्रिय धर्म है सबल से निर्वलों की रक्षा करे । पुनः अपने पैरों से यात्रा कर वाणिज्य विद्यां वैश्यों को सिखायी । क्षत्रिय, वैश्यों की नाना प्रकार सेवा करना शूद्रों को सिखाया । सबको अपनेअपने कर्तव्य का दत्तचित्त होकर पालन करना चाहिए। कोई भी मर्यादा का अतिक्रमग न करें। विजाति विवाह न करें क्योंकि इससे वर्गाशंकर दोष होता है जिससे क्षत्रिय, वैश्यादि भी शूद्र समान गिने जाते हैं इत्यादि मान-मर्यादा का उपदेश दिया। अब पूर्णतः कर्मभूमि प्रारम्भ हुयी।
सर्व प्रथम हरि, अकम्पम, काश्यम और सोमप्रभ क्षत्रियों को बुलाया तथा यथोचित्त प्रादर-सम्मान कर राज्याभिषेक कर उन्हें महामण्डलीक राजा बनाया । १-१ हजार राजा इनके अधीन होने चाहिए