Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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रत्नों से प्रार्थित प्रभु - भगवान राजते थे । पद्मा मुख्य गरिणती के साथ. १ लाख तीन हजार प्रायिकाएँ उनका स्तवन करती थीं। दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ थीं। सभी प्रभु के गुणगान और पूजा में रत रहकर धर्म लाभ लेती थीं। इनके सिवाय असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यञ्च थे । इस प्रकार इन्द्र की प्रार्थना और भव्य प्राणियों के पुण्योदय से उन्होंने सम्पूर्ण धर्म क्षेत्र (श्रार्य खण्ड) में बिहार किया। संसार भय से संत्रस्त जीवों को रक्षित कर मोक्षमार्ग पर लगाया । योग निरोध
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प्रायु का १ माह शेष रहने पर आप धर्मदेशना संकोच कर श्री सम्मेद शिखर जी पर्वत पर आये । वहाँ शंकुल ( सुबर) कूट पर योगासन से विराजे । क्रमशः शेष कर्म प्रकृतियों को भी प्रसंख्यात गुणश्रेणी द्वारा निर्जरित करने लगे । इस कुट के दर्शकों को १ कोटि उपवास का फल प्राप्त होता है। प्रतिमायोग धारण कर भगवान विराजे ।
जिस समय बायु कर्म की स्थिति से नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक रहती है तो केवली भगवान समुद्धातक्रिया कर उन कर्मों की स्थिति को प्रायु के समान कर लेते हैं । अर्थात् ग्रात्म प्रदेशों का दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण फैलाकर पुन: उसी क्रम से संकोचते हैं इस प्रकार = समयों में कर्म स्थितियों का समरूप कर लेना केवली समुद्रात कहलाता है। भगवान विमलनाथ स्वामी ने भी श्राषाढ़ कृष्णा श्रष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में प्रातःकाल प्रति शीघ्र समुद्धात किया, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और व्युपरतक्रिया निवृत्ति दोनों शुक्ल ध्यानों का ध्यान किया । उसी समय ८५ प्रकृतियों का नाश कर जिस प्रकार कोई रोगी असाध्य रोग से मुक्त हो सुखी होता है, उसी प्रकार मोक्ष पवार कर अक्षय अनन्त सुख के धारी हो गये ।
मोक्ष कल्याणक
आसाढ़ कृष्णा अष्टमी को ग्राज भो कालाष्टमी के नाम से पूजते हैं, उत्सव मनाते हैं। क्योंकि इन्द्र को, भगवान को मुक्ति हो गई यह विदित होते ही वह सुवीर कुट पर सपरिवार याया । मोक्ष कल्याणक पूजा की। अग्निकुमारों से प्रभजन उत्पन्न करा संस्कार किया की । अनेकों उत्तमोत्तम रत्नों के दीप जलाये । तदनुसार श्रावक-श्राविकाओं ने भी अनेक प्रकार भारती, भजन, स्तोत्रों द्वारा अपनी-अपनी भक्ति
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