Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
शरण रचना की आज्ञा दो। धनद ने भी भूमि से ५००० धनुष ऊपर आकाशं में उत्तम १२ सभाओं से मण्डित गंधकुटी युक्त १ योजन (४ कोश) लम्बा-चौडा गोलाकार समवशरण रचना की । इसके चारों ओर १-१ हाथ लम्बी-ऊँची २०-२० हजार सीढियाँ बनायीं (सुकर्ण की) श्राने-जाने का सभी प्रबंध देवों द्वारा था। गांधकुटी के मध्य रत्न जटित सुवर्ण सिंहासन पर भगवान अंतरिक्ष विराजे चारों ओर सुर-असुर, नर-मारी, देव-देवियाँ; तिर्यञ्च, मुनि, प्रायिकाएँ विराज गये और .. धर्मोपदेश श्रवण की प्रतीक्षा करने लगे। सिव्यध्वनि क्यों नहीं हुयो ? . .
केवल ज्ञान हो गया। सर्वज्ञ बन गये भगवान सर्वदर्शी । परन्तु ६६ दिन पर्यन्त दिव्योपदेशः नहीं आया। मौन से विराजे वे जिनराज । किसकी ताकत थी कि त्रिलोकाधिपति से पूछे, "क्यों नहीं उपदेश देते ?"
इन्द्र ने प्रवत्रि लगायी । अवधिज्ञान से कारण विदित किया कि गणघर के प्रभाव से प्रभु मौन हैं । यह भी जाना कि महा अभिमानी इन्द्रभूति ब्राह्मण गणधर होगा . . . . .
इन्द्र गौतम ग्राम में पहुँचा । इन्द्रभूति अपने ५०० शिष्यों को वेदवेदांग पढ़ा रहा था । इन्द्र भी शिष्य रूप में गया, नमस्कार किया, जिज्ञासू रूप में बैठ गया । इन्द्रभूति ने भी नये शिष्य को गम्भीर दृष्टि से देखा और पूछा तुम कहाँ से आये हो ? किसके शिष्य हो ? "मैं सर्वश भगवान महावीर का शिष्य हूँ।" इन्द्र ने कहा । सर्वज्ञ और भगवान विशेषण सुनते ही वह तुनक कर बोला, हो सर्वन के शिष्य हो? वे सर्वज्ञ कब हो गये? मुझसे शास्त्रार्थ किये बिना ही चे सर्वश हो गये?'' यह सुन इन्द्र ने भौहे चढ़ा कर कहा तो क्या तुम उनसे शास्त्रार्थ करना चाहते हो ? इन्द्रभूति बोला "हाँ, अवश्य' तो प्रथम मुझ शिष्य से ही कर लो 1 कहकर-काल्यं द्रव्य पटक नव पद सहित... प्रादि श्लोक का अर्थ पूछा । उसे अर्थ समझ में नहीं पाया, पर कडक कर बोला, चल, तुझसे नहीं तेरे गुरु से ही शास्त्रार्थ करूंगी। इन्द्र भी हंसता हुआ उसके प्रागे हो गया। विष्यध्वनि प्रारम्भ----
श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन इन्द्र के साथ इन्द्रभूति बाहारण ने समवशरण में प्रवेश किया। मानस्थभ पर इंडिट पड़ते ही उसका मान
२५८ ]