Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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Ballia
कहकर महारानी की जिज्ञासा शान्त की उसी समय स्वर्गलोक में पूर्वाजिस पुण्य का वायरलेस पहुँचा, घंटानाद, सिंहनाद आदि चिह्नों से ज्ञात कर गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाने समस्त इन्द्रादि सपरिवार आये । नाना प्रकार के अमूल्य दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से माता-पिता को ग्रलकृत कर पूजा की । गर्भ कल्याणक महोत्सव सम्पादन कर स्वर्ग में गये ।
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जन्म कल्याणक---
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शनैः शनैः गर्भ की वृद्धि होने लगी | माता का रूप लावण्य, बुद्धिवैभव आदि भी वृद्धिगत होने लगे । प्रसन्न हुई । कृतकृत्य मद रहित, सदा मनोहर, शान्त चित्त और पवित्र उस देवी की अनेकों देवियाँ योग्य वस्तुओं, गूढ प्रश्नोत्तरों से सेवा कर मनोरंजन करतीं थीं । मेघमाला में चन्द्रकला के समान शोभित वह मां प्राश्चर्यकारी कला, विज्ञान से शोभित हुयी। इस प्रकार गर्भकाल पूर्ण होने पर मंगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में उसने मति श्रुत प्रववि ज्ञानधारी अपूर्व सौन्दर्य राशि पुञ्ज गुण विशिष्ट पुत्र को जन्म दिया। तीनोंलोक श्रानन्द से क्षुभित हो गये । नारकी भी एक क्षण को सुखी हुए। माँ बिना प्रसव वेदना के सुख से सोती रहीं ।
सत्काल सूचना या इन्द्र-इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर सवार हो गजपुर को लोन प्रदक्षिणा देकर राजभवन में श्राया । देव देवियों, अप्सरा के जयनाद, गान, नर्तन से प्रकाश व्याप्त हो गया | इंद्राणी प्रसूतिगृह में जाकर बालक को ले आयीं। माँ को पुत्र वियोग जन्य कष्ट न हो, इसके लिए दूसरा मायामयी बालक सुला दिया और माँ को माया निद्रा में निमग्न कर दिया। प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाये इन्द्र बालक को देखते ही हक्का-बक्का सा हो गया । १ हजार नेत्र बनाकर प्रभु बालक की रूपराशि का पान करके भी अतृप्त ही रहा । मेरुगिरी पर ले गया । पाण्डुक शिला पर मध्य स्फटिक रत्न के सिंहासन पर भगवान बालक को विराजमान किया । देव-देवी मरण पाँचवें क्षीरसागर से हाथों हाथ जल भरकर लाये । प्रथम उभय इन्द्रों ने बड़े उत्साह से १००८ कलशों से अभिषेक किया । पुनः अन्य देव देवियों ने अभिषेकादि कर इंद्राणी ने पोंछकर वस्त्रालंकार पहिनाये । तिलकार्चन कर अंजन लगाया। भारती उतारी। नृत्यादि किये । पुनः इन्द्र लेकर गजपुर ग्राये माता-पिता को दे आनन्द नाटक किया। अभिषेक करने
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