Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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को तैयार कर उत्सव की तैयारियां होने लगीं। कुमार मल्लिनाथ का चित्त किसी छिपी शक्ति की खोज में लगा था। फहराती पताकाएँ तोरण मालाओं को लटकती देखीं, रंगोली से पूरे चौक देखकर वे अपने अहमिन्द्र भोगों का स्मरण कर विचारने लगे ग्रहो ! कहाँ वह वैभव और कहाँ यह लज्जास्पद तुच्छ विवाह ? यह मात्र विडम्बना है । श्वान वृत्ति है। भोगे भोगों को भोगना क्या सत्पुरुषों के योग्य है ? धन, चौवन, राज्य, भोग सभी उच्छिष्ट हैं इन्हें किस-किस ने नहीं भोगा ? मैं कदापि इन्हें स्वीकार नहीं करूँगा । इस प्रकार विचार कर आत्म शोधना का दृढ़ संकल्प कर संयम धारण करने का निश्चय किया ।
निष्क्रमण कल्याणक
बाल ब्रह्मचारी श्री मल्लिनाथ को सुद्ध वैराग्य होते ही लौकान्तिक देवगण श्राये । औपचारिक प्रतिबोध दे अपनी अनुमोदना व्यक्त की । उनका नियोग पूर्ण होते ही चतुर्निकाय देव, देवेन्द्र, देवियाँ ग्रादि आये । इन्द्र ने दक्षाभिषेक किया और अनेकों वस्त्रालंकारों से सज्जित कर प्रभु को 'जयन्त' नाम की पालकी में सवार किया। कुछ दूर राजा गण ले गये । पश्चात् देवगरण गगन मार्ग से श्वेत वन के उद्यान में ले गये । पूर्व सज्जित स्वच्छ मिला पर विराज दो दिन के उपवास के साथ परम farar मुद्रा धारण की । पञ्चमुष्टि लौंच किया । इन्द्र ने रत्न पिटारे में केशों को रख मस्तक पर चढ़ाया और क्षीर सागर में जाकर क्षेपण किया । ठीक ही है पुज्य पुरुषों के ग्राश्रय को पाकर तुच्छ भी महान हो जाता है । गहन सुदी ११ को अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल ३०० राजाओं के साथ सिद्ध साक्षी दीक्षा लेकर आत्म ध्यान लीन हो गये । मनः शुद्धि से ध्यान शुद्धि और उससे ज्ञान सिद्धि हो जाती है अतः उसी समय मनः पर्ययज्ञान प्रकट हुआ ।
पाररणा
किसी प्रकार श्रम नहीं होने पर भी "यह सनातन मार्ग है " शोचकर दो दिन बाद प्रहार को मुनीश्वर आये । चर्चा मार्ग से मिथिला नगरी में प्रवेश किया । सुवणं कान्ति सहा राजा नन्दिषेण ने उन्हें सप्तगुण युक्त नवधा भक्ति से प्रासुक ग्राहार देकर पञ्चाश्चर्य :
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