Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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कुमार काल ...
देव कुमारों के साथ मानन्द कीड़ा करते हुए ७५०० वर्ष बीत गये । नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में जाता समय विदित नहीं हुआ। विवाह और राजभोग
कुमार वय का अन्त और यौवन का प्रारम्भ के सन्धिकाल में पिता ने इन्द्र की परामर्श से अनेक गुरण, शील मण्डित, सुन्दर, नययौवना कन्याओं के साथ विवाह किया और राज्य भी अर्पण कर स्वयं निवृत्त हो तपस्वी हो गये | मुनिसुव्रत भी नव यौवनाओं के साथ नाना क्रीडायों में रत हो, न्यायोचित राज्यभोग के साथ प्रजा पालन करने लगे। राजभोगों में १५००० वर्ष बीत गये ।
पराग्य.....
एक दिन जोर से मेघ गरजने लगे। उनकी घड़घडाहट सुन पट्टहस्ती को वन की याद आ गयी और उसने खाना-पीना छोड़ दिया। उसके सेवकों ने महाराज मुनिसुव्रत को यह सूचना दी। उन्होंने वहाँ आकर अवधिज्ञान से कारण आन लिया और उसके पूर्वभव भी ज्ञात कर उसे सम्बोधित करते हुए बोले "देखो, यह इससे पहले भव में तालपूर नगर का स्वामी नरपति नाम का राजा था। इसे उस समय अपने कुल, ऐश्वर्य प्रादि का भयकर अभिमान था । अपात्र, पात्र, कृपात्र का विचार न कर किमिच्छक दान दिया था जिससे यह मर कर हाथी हना है । यह मूर्ख उसका स्मरण नहीं कर केवल वन का स्मरण कर रहा है. धिक्कार है मोह को।" इस प्रकार राजा के वचन सुन उस हाथी को जाति स्मरण हो गया और उसने एक देश संयम वारा किया । महाराज मुनिसुव्रत को भी इस घटना ने आत्म बोध कराया और उन्होंने भी संसार भोग त्याग का सुद्धा निश्चय किया। उसी समय लोकान्तिक देवों ने पाकर उनकी स्तुती कर वैराग्य पोषण किया।
तप कल्याणक--
वैराग्य भाव मण्डित महाराज ने अपने ज्येष्ठ पुत्र विजय को राज्यभार अर्पण किया और स्वयं प्रवृज्या धारण को वन विहार के लिए तत्पर हए । उसी समय देवेन्द्र, देवादि पाये । इन्द्र "अपराजिता" नामकी २२२ ।