Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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परिनिष्क्रमण-दीक्षा कल्याणक ---
श्री प्रभु ने षट् खण्ड पृथ्वी को तृणवत् अपने पुत्र नारायण को समर्पित की। राज्यभार देकर भाई-बन्धु, परिवार से यथायोग्य युक्ति युक्त वचनों से विदा ली। इन्द्र ने 'सर्वार्थ सिद्धि' नामक पालकी में विराजने की प्रार्थना की। साल पेंड मानवों द्वारा पालकी उठाने के बाद, इन्द्र देवगण आकाश मार्ग से ले गये। सहस्रान वन में उत्तराभिमस्त्र पल्यंकासन से विराजमान हा । आपके तेज से शिला भी कान्तिमान हो गई । ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी के दिन सायंकाल भरगी नक्षत्र में खेला का नियम लेकर साक्षात् ध्यान के समान विराजमान हए । इन्द्र ने दीक्षा कल्याणाक पूजा की। भक्ति से बार-बार नमस्कार कर अपने स्थान पर चला गया।
भगवान ने सिद्धों को नमस्कार कर स्वयं दीक्षा धारण की। पञ्चमुष्टी लौंच किया । इन्द्र उन परम पवित्र केशों को रत्न पिटारी में रखकर ले गया और क्षीर सागर के जल में क्षेपण कर महापुण्यार्जन किया ।
दीक्षा ग्रहण के साथ ही उन्हें चतुर्थ मन: पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। भगवान के साथ चायुध आदि एक हजार राजाओं ने संयम धारणा किया। हमें भी ऐसा अवसर मिले, हम भी संयम धारण करें इस प्रकार की भावना देव इन्द्र भाने लगे । अपनी-अपनी भक्ति अनुसार सभी ने पुण्य रूपी सौदा खरीदा। पारणा-माहार
वववृषभ नाराच था, तो भी औपचारिक रूप से शरीर की स्थिति का कारण आहार लेना चाहिए, इस भाव से प्रभु तेला पूर्ण कर चर्या के लिए पवित्र मन्दरपुर में पधारे। यहाँ राजा सुमित्र ने अपनी पतिव्रता, षट्कर्म परायण पत्नि के साथ सप्तगुण सहित नवधा भक्ति पूर्वक उन्हें प्रासुक क्षीरान से पारणा कराया प्रार्थात् आहार दिया देवों ने पञ्चाश्चयं किये । इस प्रकार तपश्चरसा करते हुए प्रभु को की धूल उड़ाने लगे। छप्रस्थ काल-...
आत्मा का स्वरूप है ज्ञान । लक्षण है उपयोग । उपयोग स्थिर कर स्वरूप को प्राप्त करने के सफल प्रयत्न में मुनिश्वर शान्तिनाथ ने
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