Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भी थे। अत: जिस प्रकार सौन्दर्य था उसी प्रकार अनेक गुण समूह भी. थे। प्रजा है या संतान यह भेद ही नहीं था । प्राणी मात्र पर वात्सल्य था। कुछ ही दिनों बाद उनकी प्रायुधशाला में चक्र रत्न उत्पन्न हुआ। इसके साथ ही छत्र, तलवार और दण्ड रत्न भी आयुध शाला में ही उत्पन्न हुए। काकणी चर्म और चूडामणि रत्न श्रीगृह में प्रकट हुए । पुरोहित, स्थपति, महपति, सेनापति हस्तिनापुर में ही मिले थे तथा कन्या (पट्टरानी), हाथी और घोडा रत्न विजयाई पर्वत पर प्राप्त हए। इन १४ रत्नों के भोक्ता हए । इसी समय नौ निधियों इन्द्र ने प्रदान की। असंख्य सेना के साथ वे दिग्विजय को निकले । उनके प्रताप से छहों खण्डों के राजा स्वयं ही भेंट ले ले कर आये और उनकी प्राज्ञा रूपी माला को शिरोधार्य किया । इस प्रकार भरत क्षेत्र के ६ खण्डों के प्राधिपत्य को भोगते हए उनके ५०००० (पचास हजार) वर्ष व्यतीत हुए। दशाङ्ग भोगों में जाता काल पता ही नहीं चला।
वैराग्य--- ___चक्रवर्ती महाराजा अपनी अलंकार शाला में प्रविष्ट हुए। वे भोगों में आपाद मस्तक डूबे थे। मेरा वास्तविक हित क्या है ? यह विचार ही नहीं था। उसी समय उन्होंने दर्पण में अपना मुख देखा, उस समय दो मुख दिखायी दिये । वे चौंके, ये दो प्रतिविम्ब क्या सुचना दे रहे हैं? यह प्रश्न उठा और आत्मबोध जाग्रत हो गया। बस, वे विचारने लगे, "यह शरीर छाया सहश है, लक्ष्मी प्रोस बिन्दू वत है, ये सम्पदाएँ विधुत के समान चंचल हैं, भोग रोग के कारण हैं, संयोग के साथ वियोग जुड़ा है, जन्म के साथ मरण त्रिपका है।" अब मुझे जन्म का ही नाश करना है। यह कार्य भोगों में नहीं त्याग में होगा । संयम धारण कर तप से कर्मों को खिपाऊँगा।" इन विचारों के समय ही शीघ्र लौकान्तिक देव आ गये, और कहने लगे, "भगवन् पाप धन्य हैं आपका विचार उत्तमोत्तम है, विच्छिन्न धर्म को बढ़ाने का यह समय है, आप द्वारा ही यह कार्य संभव है।" इस प्रकार अनुमोदन से महान् पुण्योपार्जन कर वे अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर सिंहनादादि चिह्नों से ज्ञात कर इन्द्र देव, देवियाँ सपरिवार पाये। इन्द्र ने शचि सहित प्रथम प्रभु का दीक्षाभिषेक किया । इन्द्राणी द्वारा लाये गये वस्त्रालंकारों से अलंकृत किया।
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