Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्री कर रानी का मनोरंजन कराने में लगी थीं। सेवा में तत्पर रहती । नाना प्रकार शुभ शकुन हुए। इन सभी कारणों से महाराजा विश्वसेन को निश्चय हो गया कि मेरे घर पूज्य 'तीर्थंकर' का जन्म होगा । बड़े. आनन्द से उनका समय व्यतीत होने लगा ।
भाद्रपद कृष्णा सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रात्रि के पिछले समय महारानी 'ऐरा' ने पूज्य होने वाले पुत्र के द्योतक १६ स्वप्न देखे । मुंह में प्रवेश करता हुआ सुन्दर हाथी देखा | वह मेघरथ का जीव अहमिन्द्र उसी क्षण सुख से गर्भ में अवतरित हुआ । प्रातः होते ही ऐरा देवी ने पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा "तुम्हारे शुद्ध पवित्र गर्भ में तीर्थकर ने प्रवेश किया हैं" यह स्वप्नों का फल सुनकर वचनातीत हर्ष प्राप्त किया । रुचकवासिनी देवियों ने पहले से ही गर्भ-स्थान को सुगंfar पुनीत स्वर्गीय पदार्थों से सुवासित कर दिया था। बालक को किसी प्रकार कष्ट न हो और माँ को भी गर्भजन्य पीड़ा न हो इस प्रकार बह बालक गर्भ में बढ़ने लगा ।
उसी दिन सौधर्मेन्द्र सपरिवार आया । गर्भ कल्याणक महोत्सव सनाया माता-पिता की नाना प्रकार के सुन्दर वस्त्रालंकारों से पूजा को। माँ को किसी प्रकार कष्ट न हो, यह प्रादेश दे, देवियों को सेवा रत कर, अपने स्थान पर चला गया ।
जन्म कल्याणक ---
धीरे-धीरे गर्भ के नौ मास पूर्ण हो गये । माता के रूप सौन्दर्य के साथ बुद्धि, शीलादि गुण भी चर्म सीमा पर जा पहुँचे । ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में प्रातःकाल की शुभ बेला में ऐरा महादेवी को जगद्गुरु की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चारों श्रोर बालक की रूप राशि से प्रकाश ला गया। तीनों लोकों में आनन्द खा गया । कम्पित आसन से इन्द्रों ने प्रभु के जन्म को ज्ञात किया और उत्सव मनाने या पहुँचे । नगरी की तीन परिक्रमा की । इन्द्राणी स्वयं प्रसूतिगृह में जाकर सद्योजात बालक को लायी और इन्द्रराज हजार नेत्र बनाने पर भी अतृप्त रहू सुमेरु पर्वत पर लाया। पोण्डुक वनस्थ पाण्डुक शिला के मध्य सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान किया । प्रथम हो सौधर्म और ईशान इम्दों ने क्षीरोदक से मरे १००८ सुवर्ण
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