Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रकृति की सुषमा काल की गति के साथ-साथ सदा परिणमित होती रहती है। प्रायु के साथ जीव की पर्याय बदलती है । अर्थ पर्याय प्रति समय चज होती ही है ! कौन रोके ? स्वभाव अतर्कय होता है । अनन्त राजा आकाश का सौन्दर्य निरख रहे थे । सहसा उल्कापात हा । वह वाह्य निरस्वन अन्तरङ्ग परखने में बदल गया । वे विचारने लगे "कर्म विषवल्ली है, प्रज्ञान इसका बीज है, असंयम भूमि में बढ़ी है, प्रमाद जल से अभिसिंचित है, कषायरूप शाखाओं से व्याप्त है, योगों के माध्यम से लहराती है, बूढापा रूप पुष्पों से लदी है, दु:ख रूपी बुरे फलों से व्याकीरणं है । मैं इसका मूलोच्छेद करूंगा। शुक्ल ध्यान से इसे दग्ध कर अपने सिद्ध स्वरूप को अवश्यमेव पाऊँगा।" इसी चिन्तन के समय सारस्वतादि लौकान्तिक देवगणों ने प्राकर प्रापके विचारों का समर्थन किया और अपने स्थान पर लौट गये।
उन परम् विरागी राजा ने कर्म विजयी बनने को राज्यभार अपने पूत्र अनन्त विजय को समर्पित किया। उसी समय देवेन्द्र ने सपरिवार प्राकर उनका पूजन-अभिषेक किया तथा उन्हें सागरदत्ता नाम की पालकी में सवार कर सहेतुक वन में पधारे। वहाँ स्वयं भगवान ने "नमः सिद्धेभ्यः" के साथ पञ्चमुष्टी लौच कर जिनदीक्षा धारण की। ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन रेवती नक्षत्र में शाम के समय १ हजार राजानों के साथ तेला का नियम कर दीक्षित हुए। उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान हुमा।
पारणा
तेला पूरा कर श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ ने मुनिराज पाहार के लिए चर्यामार्ग से अयोध्या नगरी में पधारे । सुवर्ण समान कान्ति वाले राजा विशाख ने उन्हें श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, संतोष आदि सप्त मुसा सहित, नवधा भक्तियुत अत्यन्त हर्ष से अाहार देकर पञ्चाश्चयं प्राप्त किये। शुद्धाहार से मनः शुद्धि भी बढ़ती गई।
छपस्थ काल--
दो वर्ष पर्यन्त उन्होंने मौन पूर्वक तप करते हुए समाप्त किये। उपोन घोर तप से असंख्यात गुणित कम से कम निर्जरा होती रही। . १७६ ]