Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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डूबे प्रभु एक दिन हेमन्त ऋतु की शोभा देख रहे थे । प्रकाश में मेघ श्राच्छादित हो रहे थे । पलक झपकने के साथ वह सुन्दर दृश्य विलीन हो गया । बस प्रभु का भी मोह परदा फट गया । उन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण हो गया । एक भीषण रोगी की भांति उनका मन खेद खिन्न हो गया। वे सोचने लगे जब तक संसार की अवधि है, तब तक ये तीन ज्ञान, यह वैभव यह वीर्य कुछ भी कार्यकारी नहीं । अब मुझे प्रात्म स्वातन्त्र प्राप्त करना है । उसी समय सारस्वतादि लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी पूजा की, स्तुति की और वैराग्य की पुष्टि कर अपने स्थान को चले गये ।
दीक्षा कल्याणक---
पुण्य का करण्ट कहीं नहीं पहुंचता ? मोक्ष के सिवाय सर्वत्र इसके तार लगे हैं। भगवान को विरक्ति होते ही इन्द्र गण अपना-अपना परिवार लेकर आये । इन्द्र 'देवदता' नाम की पालकी लेकर आया | प्रभु का अभिषेक कर वस्त्राभूषण पहिना कर सहेतुक वन में ले गये । उद्यान की निराली शोभा के मध्य शुद्ध शिला पर "नमः सिद्धेभ्यः" कह कर विराजे । पञ्चमुष्टि लाँच किया । बेला का उपवास धारण कर १००० राजाओं के साथ मात्र शुक्ला चतुर्थी के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में सायंकाल स्वयं दीक्षित हुए। उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। वहीं योगासन से ध्यानारूढ हो स्वयं में स्वयं की खोज करने लगे ।
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पारण:
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दो दिन बीतने पर ध्यानी, परम मोनी प्रभु भगवान श्राहार के लिए चर्या मार्ग से नन्दनपुर में श्राये । सुवर्ण के समान कान्ति को धारण करने वाले महाराज जयकुमार ने अपनी पत्नी सहित नवधाभक्ति से बाहार देकर देवों द्वारा पञ्चाश्वर्य प्राप्त किये । संसार का नाश करने वाला पुण्यार्जन किया। मुनिराज भी क्षीराम का प्रथम पारणा कर उद्यान में गये । विविध प्रकार कठोर तप कर कर्मों का नाश करने लगे उम्रो संयम वृद्धि हो रही थी। अनन्त गुणी कर्मों की निर्जरा भी बढ रही थी ।
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