Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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शरीर काल्पलता के समान था। सुन्दरतम अनेक रानियों थी । अट भोग पदार्थ थे । अनेक भोगों में रत था । किमी दिन उसे वैराग्य हुआ और अपने पुत्र धमपाल को राज्यभार प्रदान कर श्री विमल वाहन गुरु के समीप जा दीक्षा धारण की। मुनि होकर वह ग्यारह अंग का पाठी हो गया । उसने दहता से सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन किया और तीर्थङ्कर प्रकृति का बना कर प्रायु के अवसान में समाधिपूर्वक शरीर त्याग प्रथम विजय नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ । तेतीस सागर को उत्कृष्ट प्रायु थी। प्रवीचार रहित अनुपम सुख भोगता था । यहाँ के शरीर, प्रयासोच्छवास, आहार आदि का काल वहाँ के अनुसार ही था । क्रमश: जब आयु के छह माह शेष रह गये तो तीर्थ कर प्रकृति की सत्ता का चमत्कार होने लगा।
शुद्ध सुवर्णावत् आत्म सुख का अनुभव करते हए भी जिन भक्ति और तत्व चिन्तन में ही रत रहता था । शान्त चित्त से वैराग्य रूप सम्पत्ति का ध्यान करता था। सतत् सकल कर्म विनाश का चिन्तन करता। इधर भरत क्षेत्र में अयोध्या नगरी की शोभा बढ़ने लगी । यहाँ का राजा स्वयम्बर अपनी पटरानी सिद्धार्था के साथ राजकीय सुखों का अनुभव करते थे । दोनों दम्पत्ति गृहस्थाश्रम समस्त क्रियायों का पालन करते हुए उसके फल (पुत्र) की प्रतीक्षा करने लगे । सहसा उनके प्रांगन में त्रिकाल रत्नवृष्टि प्रारम्भ हुयी और लगातार छह माह होती ही रही। गर्भावतरण
अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षवत् वस्तु के यथारम्य का प्रतीक होता है। राजांगण में षटमास से होती हवी रत्नष्टि से सभी प्राशान्वित थे कुवेर की उदारता से यह वृष्टि नियमित रूप से होती रही, वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन ६ महीने पूर्ण हुए। इसी रात्रि को सिद्धार्था माँ में पिछले प्रहर में १६ स्वप्नों के अन्त में विशाल मज को अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा । पूनर्वसु नक्षत्र में भगवान गर्भ में प्रा विराजे । माता सिद्धार्थी को मल-मूत्र रजस्वला धर्म स्वभाव से ही नहीं था, फिर गर्भाशय का शोषन विशेष रूप से देवियाँ कर चुकी थीं। स्वर्ग से अतिसुगंधित द्रव्य लाकर गर्भ स्थान को पवित्र बना दिया था। प्रतः अहमिन्द्र वहाँ से च्युत हो प्रानन्द से प्रा विराजा । सिद्धार्था प्रातः पति से स्वप्नों का फल, तीर्थङ्कर होने वाले पुत्र का जन्म जानकर विशेष संतुष्ट हुयी। ८६ ]