Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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केवल मानोत्पत्ति..
अन्तमूहर्त मात्र एकाप्रचित होते ही चैत्र सुदी एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में जब सूयं पश्चिम की ओर जा रहा था उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ। मान कल्याणक
पुर्ण ज्ञानी होते ही इन्द्र सपरिवार पाया और अष्ट प्रकारी केवलझान पुजा की तथा उत्सव मनाया। कुवेर ने समवशरण रचना की तथा नर-तिर्यञ्चों ने अपने-अपने स्थान में बैठकर धर्मोपदेश-श्रवण किया। भगवान की दिव्यध्वनि अनेकान्त वाणी या सिद्धान्त के रूप में खिरी । भन्य जीवों को सदाचार, प्रेम, वात्सल्य का उपदेश दिया । रतन्त्रय ही मुक्ति मार्ग है। उपयोग लक्षण वाली प्रात्मा रतन्त्रय स्वरुप है, यह समझाया। प्राणीमात्र का मित्र सम्यग्दर्शन है, इत्यादि धर्मदेशना प्रदान की।
समवशरण परिवार.-.-
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सप्तऋविधारी ११६ गणधर थे। प्रथम गणधर चमर या अमरवच थे । २४०० ग्यारह अग और चौदह पूर्वधारी, २५४३५० (दो लाख चौवन हजार, तीन सौ पचास) शिक्षक-उपाध्याय, ११००० (ग्यारह हजार) अवधि ज्ञानी, १३००० (तेरह हजार) केवलज्ञानी, १८४०० विक्रिया-ऋद्धि धारी, १०४०० मन: पर्ययज्ञानी, १०४५० वादी, प्रभु की भक्ति में संलग्न थे । इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख, बीस हजार (३,२०,०००) मुनियों से वे प्रभु सुशोभित थे ।
उनके समवशरण में तीन लाख, तीस हजार प्रायिकाएँ थीं। इनमें प्रमुख-गशिनी अनन्तमती ग्रायिका थी। इसी प्रकार तीन लाख श्रावक और ५,००,००० (पाँच लाख) श्राविकाएँ श्रीं । इनके अतिरिक्त असंख्यात देव एवं देवियाँ और संख्यात तिर्यन थे । इस प्रकार विभूति सहित भगवान ने १८ अठारह क्षेत्रों में धर्मोपदेश दिया था। उर्वरा भूमि में उत्तम वीज सर्वोत्तम फल प्रदान करता है। उसी प्रकार प्रम ने उत्तम आर्य क्षेत्रों में श्रेष्ठतम दिव्य ध्वनि रूप वीज वपन कर भव्यों को उत्तमोत्तम धर्मफल प्रदान किया।
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