Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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इन्द्र, देवादि ग्राकाश मार्ग से प्रा पहुँचे सहेतुक वन में । ३००० धनुष ऊँचे प्रियंगु वृक्ष के नीचे स्वस्तिक प्रपूरित स्वच्छ शिलापट्ट पर आ विराजे ।
अपराह्न काल, विशाखा नक्षत्र, काशी नगरी के सहेतुक वन में वेला (दो दिन का उपवास का नियम कर ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन "नमः सिद्धेभ्य" उच्चारण कर स्वयं पञ्चमुष्ठी केश लखकर जैनेश्वरी भगवती दीक्षा धारण की। चारों ओर सुर-नर असुरों द्वारा जय जय नाद गूंज उठा । प्रभु ने उभय परिग्रह को तृणवत् सर्प कंचुली के समान त्याग दिया 1 गुप्तियों से प्रसाद से उसी समय प्रापको चतुर्थ मनः पर्यय ज्ञान प्रकट हो गया । प्रभु तपः लोन हुए । सूर्यक्षितिज में लय हुआ और आगत सुरासुर, नर नारियाँ अपने-अपने स्थानों को प्रस्थान कर गये । प्रभु के साथ १००० राजाओं ने मुनिमुद्रा धारण की जिनके मध्य श्री सुपार्श्व नक्षत्रों से वेष्टित चन्द्रवत शोभित हुए ।
वारणा
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मनोवल भी एक आश्चर्य जनक स्थिति है। इसकी शक्ति का पार नहीं । 'मन चंगा तो खटती में गंगा ।" जहाँ लगादो बेडा पार उधर ही का । प्रभु एकाग्रचित्त ध्यान निमग्न हो गये । निमिष के समान ३ दिन चले गये । पारसा के दिन भगवान ने ईर्याय शुद्धि पूर्वक वन से प्रयाण किया । नातिमन्द गमन करते हुए सोमखण्ड ( पटली खण्डपुरी ) में प्रवेश किया। सूर्योदय होने के पूर्व प्राची में लालिमा विश्वरं जाती है उसी प्रकार याज नगरी में स्वभाव से उल्लास छाया था । राजा-रानी को विशेष प्रमोद भाव जाग्रत हो रहा था। वे दम्पत्ति विशेष जिन पूजा कर, तत्त्व चर्चा के साथ परमोत्कृष्ट प्रतिथि- मुनिराज की प्रतीक्षा में द्वार पर विनम्र भाव से खड़े थे । भावना भव मज्जनी पुनीत, श्रद्धा भक्ति के फल स्वरुप उन्होंने एक विशाल काय दिव्य ज्योति पुञ्ज जात रूप स्वामी मुनिराज को सम्मुख प्राते देखा । हर्ष से गद् गद्, संतुष्ट, र भक्ति से कराञ्जुलि मस्तक पर रख, हे स्वामिन् नमोऽस्तु, नमोऽस्तु नमोऽस्तु, अत्रावतर, अत्रावतर, तिष्ट, तिष्ट कहकर पडगाहन किया | तीन प्रदक्षिणा देकर परम उल्लास से दम्पत्ति वर्ग ने नवधा भक्ति पूर्वक क्षीरान से पारणा कराया । राजा महेन्द्रदत्त की कान्ति सुवर्ण समान, प्रभु पात्र हरित वर्ण पन्ना समान, रवि रश्मियाँ शुभ वर्ण
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