Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रकट हुआ, दर्शनावरणी के विनाश से अनन्त दर्शन, मोहनीय का सर्वथा . विगलित होने से अनन्त सुख और अन्तराय के प्रभाव से अनन्तवीर्य प्रकट हुमा । सकल चराचर पदार्थ अशेष पर्यायों सहित एक साथ उनके निर्मल ज्ञान में प्रतिविम्बित हो उठे । उधर देवेन्द्र ताक में बैठा ही था, संकेत मिलते ही भू लोक में पाया । समवशरण मण्डप तैयार करने को कुवेर को प्रादेश दिया । फाल्गुण कृष्णा छठ के दिन शाम को विशाखा नक्षत्र में केवलज्ञान और केवल दर्शन युगपत प्राप्त हुए । विशाल वैभव से इन्द्र ने ज्ञान कल्याणक पूजा की। समवसरण रचना-....
बद्धि का फल है तत्त्व विचार । तत्व परिज्ञान का साधन है तत्त्वजों की संगति, उनका उपदेश-देशना । अतः सुमति धारी इन्द्र ने भगवान के तत्व ज्ञान से लाभ लेना चाहिए, सोचकर सभामण्डप की रचना करायी । बारह सभाओं को समन्वित किया । अपने उदार मनोभाव से ह योजन प्रमाण विस्तार (३६ कोश में में समवशरण रचना की। सहेतुक वन में शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ प्रम को सर्वाता प्राप्त हुयी थी-अर्थात् केवली हुए थे । इसलिए कुवेर ने सहेतुक वन में ही सभा भवन तैयार किया । भव्य सम्यग्दृष्टि मनुष्य, स्त्रियाँ बाल बालिका (अाठ वर्ष के) चारों प्रकार के देव देवियाँ १०० इन्द्र-इन्द्राणियां, पार पक्षी प्रादि सभी प्रेम से यथा योग्य स्थान पर बैठकर परम श्रद्धा से भगवान की धर्म देशनामृत का कम्पुटों से पान करते थे-सुनते थे।
समवशरण में ११००० सामान्य केवली थे, २०३० पूर्व धारियों की संख्या थी, २४४६२० पाठक-शिक्षक, ११५० मनः पर्ययज्ञानी, १५३०० विक्रिया ऋद्धि धारी, ६००० अवधिज्ञानी'८६०० चादी थे। सम्पूर्ण ३००००० अर्यात् तीन लाख थे । वलदत्त या वली प्रधान गणधर सहित ६५ गणधर थे। मीन श्री प्रमुख गरिणनि (मुख्य प्रायिका) थीं। सम्पुर्ण प्रायिकाओं की गणना ३३०००० थी। इनका 'दानवीर्य प्रमुख श्रोता था। तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकाएं थीं। वरनन्दी या मातंग इनका यक्ष और काली (मालिनी) नामकी यक्षी थी। इस प्रकार असंख्यात देव-देवी एवं पशु पक्षियों के साथ परिवत भगवान सुपार्श्व प्रभु गंध कुटी में सुशोभित होते थे। सभी सुरासुर, नरादि उनकी नाना विध प्रष्ट प्रकारी पूजा करते थे । तीनों लोकों के सकल पदार्थ तीनों काल सम्बन्धी सम्पूर्ण पर्यायों सहित उन के ज्ञानालोक १२२ .