Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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किसी प्रकार का प्रभाव नहीं था । प्रजा उसकी भक्त श्री । पुण्डरीकनी' नमरी को पुष्कलावती देश' अपना गौरव समझता था । यह था पुष्करार्द्ध के पूर्व विदेह में ।
महाराज महापद्म ने परिजन पुरजन के साथ भगवान की तीन प्रदक्षिणा दी, प्रष्टविध पूजा की और यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश श्रवण कर संसार शरीर भोगों से विरक्त हो गया । "मोह, माया मिथ्यात्व की जड़ बिना तप के नहीं उखड़ सकती, अतः मैं दीक्षा लेकर कर्मों का उन्मूलन करूंगा ।" इस प्रकार दृढ़ निश्चय कर अपने पुत्र धनद के लिए राज्य समर्पण कर स्वयं अनेक राजानों के साथ दीक्षित - मुनि हो गये । अनुक्रम से ११ अंगरूपी आगम के पारगामी बने | सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थङ्कर गोत्र का बन्ध किया । अन्त में समाधिमरण कर चौदहवें प्रारणत स्वर्ग में इन्द्र उत्पन्न हुए ।
उनकी ग्रायु २० सागर २ लाख पूर्व की थी, शरीर ऊँचाई साढ़ेतीन हाथ, शुक्ल लेश्या, मानसिक प्रवीचार था, पाँचवी पृथ्वी तक विज्ञान था, दस महोने बाद श्वास लेते थे, बीस हजार वर्ष बाद मानसिक अमृत आहार था, अणिमादि ऋद्धियों से सम्पन्न और महाबलवान था । अपूर्व और अद्भुत वैभव का अधिपति होकर भी भोगों में उदासीन और जिनभक्ति में दत्तचित्त रहता था ।
गर्भावतरण.
इन्द्र की श्रायु मात्र ६ महीने रह गयी । यह जानकर भी शोक रहित था । पुण्य की महिमा अचिन्त्य है । सोमेन्द्र ने कुवेर को धाज्ञा दी और उसने जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को काकन्दी नगरी के महाराजा सुग्रीव के प्रांगण में त्रिकाल रत्न वृष्टि करना प्रारम्भ कर दिया । tear वंशी काश्यप गोत्रीय श्रेष्ठ क्षत्रिय महाराज ने भी यह शुभोदय और भावी कल्याण का चिह्न है, समझकर उस रत्न-राशि को दान में उपयुक्त किया । फलत: दान लेने वालों का नाम ही नहीं रहा । लक्ष्मी
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का भोग बांट कर ही करना चाहिए । सज्जनों का वैभव सामान्य होता है। जिसका उपभोग सभी कर सकते हैं ।
महारानी - जयरामा बड़े हर्ष से सिद्ध परमेष्ठी की भक्ति और ध्यान करती थी । आज सायंकाल उसे अपूर्व आनन्द हो रहा था। धीरे-धीरे
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