Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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और अधोलोक में भी एक क्षण को शान्ति व्याप्त हो गई। दिशाएं और आकाश भी निर्मल हो गये। माता-पिता "क्या करें" यह सोच भी नहीं पाये कि इन्द्र राज स्वर्ग लोक का वैभव लुटाता, गाता, बजाता, नाचता श्रा धमका। शनि देवी ने माया प्रसार कर मां को सुख निद्रा में सुला दिया । बालक प्रभु को उठा लायो। कितना सुख उस सद्योजात बच्चे के स्पर्म का हुआ वह स्वयं इन्द्राणी ही अनुभव कर रही थी । इन्द्र ने अतृप्त हो १ हजार नेत्र बनाये। सुमेरु पर्वत पर ले गया । क्षीर सागर से विशाल बडे भर-भर कर इन्द्र, देव, चि, देवियों ने क्रमश: १००८ कलशों से महाभिषेक किया । सर्वाङ्ग में गंधोदक लगाया। शचि ने कोमल वस्त्र से पोंछ कर सुखद, योग्य, अनुपम प्राभुषरण, वस्त्र पहनाये । काजल लगाया, प्रारती उतारी, नत्य किया। पून: लौटकर चम्पानगरी में पाये । धूम-धाम से बालकको मां की गोद में विराजमान किया नाम वासुपूज्य और लाञ्छा भैंसा घोषित किया । मानन्द से ताण्डव नृत्य किया और सपरिवार अपने नाक लोक को चला गया ।
श्रेयांसनाथ के ५४ सागर बीतने पर और अन्त में तीन पल्य तक धर्म का विच्छेद होने के बाद इनका जन्म हुआ । इनकी आयु ७२ लाख वर्ष की थी। शरीर ऊँचाई ७० धनुष और वर्ग कुंकुम समान लाल था। उर्बरा भूमि में जिस प्रकार अनेक गुरणी बीज की वृद्धि होती है उसी प्रकार इनका प्राधय पाकर गुरण समूह निरंतर वृद्धि को प्राप्त होने लागे । वे इनके प्राश्रय से श्रेष्ठतम हो गये थे । देव गण समवयस्क बालक रूप धारण कर इनके साथ खेलते थे। वस्त्रालंकार, भोजन की व्यवस्था स्वयं इन्द्र के हाथ में थी। भला क्या सीमा है इन भोज्य पदार्थों की ? स्वर्ग ही धरा पर उतर पाया। इस प्रकार उनके १८ लाख वर्ष कुमार काल के व्यतीत हो गये ।
माता-पिता की स्वभाविक इच्छा पुत्र के विवाह की होती है। वे अपने कुल वृद्धि का स्वप्न विवाह काल के बाद से ही देखने लगते हैं। महाराजा वासुपूज्य और जयावती भी इसके अपवाद न थे । परन्तु भावी बलवान होती है । वासुपूज्य कुमार को विवाह का प्रस्ताव मान्य नहीं हुमा । उनकी दृष्टि में बन्धु-बन्धन, शरीर-कारागार, नारी-नागिन, भोग-भुजंग और संसार-प्रसार था । फिर भला कैसे रमते ?