Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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Pawanianimline
पारणा.
परम मौनी, परम ध्यानी मुनिपुंगव पाहार की इच्छा से वन से चले । निरख-निरख च रस न्यास करते प्रभ ने मलिनपुर नगर में प्रवेश किया। चारों ओर द्वाराप्रेक्षण करने वाले अपने-अपने पूण्योदय की प्रतीक्षा कर रहे थे। वहाँ का राजा सोमदत्त भी अपनी प्रिया सहित भक्ति से प्रतीक्षा कर रहा था । उसका पुण्यवक्षा फला । नवधा भक्ति से प्रभु का पड़गाहन कर निविन पाहार दिया । पाश्रदान के प्रभाव से देवों ने उसके घर रत्नवृष्टि प्रादि पंचाश्चर्य किये । प्राहार ले प्रभु वल में गये और अखण्ड मौन से कठोर तप करने लगे । कषायों का उन्मूलन किया । उभय तप किया। उत्तम ध्यान धारण किया । इस प्रकार जिनकल्प अवस्था में तीन मास व्यतीत किये।
लशान कल्याणक..
दीक्षा वन में ही वे प्रभू बेला का नियम लेकर नाग वृक्ष के नीचे शान्त चित्त से विराजमान हो गये। सम्यग्दर्शन को घामक प्रकृतियों का पहले ही नाश कर दिया था। अब अध: करमा प्रादि तीम परिणामों के द्वारा क्रमशः क्षपक श्रेणी का प्राश्रय लिया उस समय द्रव्य-भाव रूप चौथा सूक्ष्म सांपराय नाम का चारित्र दैदीप्यमान हा । उत्तम धर्म-ध्यान प्रथम शुक्ल ध्यान कुठार से मोह शत्रु का नाश किया प्रगाढ सम्यग्दर्शन पाया। तदनन्तर द्वितीय शुक्ल ध्यान से शेष तीनों धातिया कर्मों का समूल नाश कर केवलज्ञान लक्ष्मी को पाया। परमावगाढ सम्यग्दर्शन और यथाख्यात चारित्र से अलंकृत प्रभु शोभित होने लगे। फाल्गुन कृष्णा सप्तमी अनुराधा नक्षत्र में सध्या के समय दिव्य ज्योति लोकालोक प्रकाशक ज्ञान से मण्डित प्रभ जिनराज बन गये । इन्द्र की प्राशा से कुवेर ने सभा मण्डप, समयमरगा की रचना की। ।
. समवशरण परर्णन
भगवान की दिव्य वाणी जिस प्रकार प्राणी मात्र को सुख शान्ति और संतोष को कारण थी उसी प्रकार कुवेर द्वारा निर्मित उनका सभा मण्डप (समवशरण) भी सबको सुखप्रद था। बारह सभाओं के मध्य रत्न जडित सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान थे । प्रभु का चारों ओर १३२ ।