Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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ग्रीष्म ऋतु ! उन्होंने देखा बसन्त का सौन्दर्य फीका पड़ गया, झुलस गया ग्रीडम ताप से हृदय में वेदना जगी, मानस पर सत्य की अमिट रेखा खिच गई। प्रत्येक पदार्थ परिणमन शील है, नश्वर है, जीवन भी इसका अपवाद नहीं । मुझे भी मरना होगा। नहीं, मैं अब इस मरण की श्रेणी से बाहर पाने का प्रयत्न करूगा । मोह, भूल गया अपने अमरत्व को, अजरत्व को । कितना बड़ा प्रमाद है मेरा? कितना भयंकर दुष्परिणाम है इस जग जंजालका, भोगो का और राज्य सम्पदा का? सब कुछ छाया के समान ही अस्थिर है । क्या मेरे जैसे जानी को सामान्य जनवत् इन तुच्छ प्रलोभनों में फसना उचित है ? मैं अंधे के समान इन विषयों में उलझा हूँ, प्रोह ! कितनी विचित्र है मोह की लीला ! अज्ञानान्धकार फट गया । बोत्र रवि उदित हा एक क्षण भी राज-वैभव और राजा उन्हें नहीं सुहाया । तत्क्षण अपने पुत्र को राज्य प्रदान कर संयम धारण करने का दढ संकल्प किया । क्या सुमेरु को प्रलय पवन चला सकता है ? नहीं । दल मनस्वी-प्रात्मार्थी का संकल्प कौन चलायमान कर सकता है ? कोई नहीं। उसके समक्ष तो शूल फूल बनकर पाते हैं, आपत्ति-सम्पत्ति हो जाती है, निराशा माशा बन कर छाती है, अंधकार प्रकाश रूप में फैलता है । बस यही हमा राजा सूपापर्व को । जेठ का तपला सुयं उनके चरणों में नत हो गया, जलती भूमि शीतल बन गयी । प्रागये देव ऋषि-लौकान्तिक देवगमा उनके विचारों की पुष्टि के लिए. जय-जय घोष से स्तुति करने लगे, धन्य धन्य कर पुण्यवर्द्धन किया, हमें भी मनुष्य भव मिले और शीघ्र
आपके पदचिह्नों का अनुगमन करें इस भावना के साथ-साथ अपने निवास स्थान को लौट गये ।
परमाणु की चाल विद्युत गति से भी तीब है। प्रभु के पुण्य परमाणु जा पहुँचे स्वर्ग लोक में । चारों निकायों के देवों को अतिशीघ्र दीक्षा पत्रिका प्राप्त हो गई बिना कागज और स्याही की । इन्द्र राजा क्यों चुके इस पूण्याबसर को। "मनोगति" नामक शिक्षिका सजाकर ले प्राया । सपरिवार आ पहुँचा बाणारसी नगरी में अतिशीघ्र इस भय से कि कहीं मुझ से पहले कोइ प्रौर न ले जाय प्रभु को । महाराजा सुपार्व भी तैयार थे, अब राजा से भगवान बनने को। इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने के बाद तत्क्षण पालकी में सवार हुए। प्रथम भूमिगोचरी राजा लोग फिर विद्याधर राजा ७.७ कदम शिविका लेकर चले और तदनन्तर
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