Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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के कारण हैं । आत्मा के शत्रु हैं । अतः अब मुझे नित्य, साश्वत सुख की खोज करना चाहिए। यह राज भवन त्याज्य है । दुख:द है । अब एक क्षण भी यहाँ नहीं रह सकता ।
लौकान्तिक देवों का श्रागमन
प्रभु विरक्ति में निमग्न थे कि सारस्वतादि देव गणों ने श्राकर उनके वैराग्य को पोषक अनुमोदन प्रदान किया । "हे प्रभो ! आपका विचार श्लाघ्य है, उत्तम है, जन्म जरा मरण का नाशक है, मुक्ति का कारण है । शीघ्र दीक्षा धारण कर आत्म कल्याण सिद्ध करें | सकलज्ञ हो जन-जन का उद्धार करें।" अन्य भी नाना स्तुति कर वे बाल ब्रह्मचारी देव गण अपने स्थान को गये। उधर इन्द्र का आसन चलायमान हुआ ।
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इन्द्रागमन और तप कल्याणक
इन्द्रादि देवों ने ग्राकर उनका अभिषेक किया और "अभया" नामकी पालकी में विराजने की प्रार्थना की। उसी समय प्रभु ने अपने ज्येष्ठपुत्र का राज्यभिषेक पूर्वक राज्य तिलक किया। स्वयं पालकी में विराजे । प्रथम मनुष्य और फिर देवों ने ले जाकर सहेतुकवन में प्रभु को पहुँचाया। स्फटिक तुल्य शिला पर पूर्वाभिमुख विराजे । वैशाख शुक्ला नौमी के दिन पूर्वान्हकाल में मघा नक्षत्र में एक हजार राजाश्रों के साथ तेला का उपवास लेकर परम दिगम्बर दीक्षा "नमः सिद्धेभ्य" उच्चारण कर धारण की। उसी समय मनः पर्यय चतुर्थ ज्ञान हो गया ।
श्राहार
Adve
वैशाख शुक्ला १२ को प्रभु चर्या के लिए विधिवत् 'सौमनस्' नामके नगर में पधारे। 'पद्मद्युति' राजा ने प्रति श्रानन्द से पडमाहन किया । नवधा भक्ति से सप्तगुण युत प्रभु को खीर का पारणा कराया । राजा की भक्ति विशेष से देवों ने उसके प्रसाद में पञ्चाश्चर्य किये और उसकी पूजा की। भगवान मन पूर्वक वन में प्राये और कठोर तप करने लगे । तप करते-करते छद्यस्थ काल के २० वर्ष पूर्ण हुए। एक दिन तेला का उपवास ले निर्विकल्प ध्यान में आरूढ़ हुए। कर्म कालिमा तपो ज्वाला में भस्म होने लगी । क्षपक श्रेणी में आ गये प्रभु ।
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