Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
Maineraininewwmvdomomwwwmommon
s
में श्वास लेता था । २७ हजार वर्षों में मानसिक आहार लेता था, विक्रिया और अवधि ज्ञान सातवीं पृथ्वी तक था । २७ सागर की प्रायु थी। इस प्रकार स्त्री संभोग रहित अनुपम सुख भोगने लगा । यह है तप की महिमा । गर्भ कल्याणक
काशी देश अपनी सुषमा से स्वर्ग लोक को भी तिरस्कृत करता था । बनारस नगर ने विशेष सौन्दर्य धारण कर लिया। पुण्यांकुर फलित होने पर सांसारिक वैभव, प्रकृति छटा का विस्तार होना स्वाभाविक ही है । जम्बूद्वीप का तिलक स्वरुप इस नगर का भाग्यशाली राजा था सुप्रतिष्ठ । वस्तुतः सम्पूर्ण प्रजा पिता तुल्य इसे प्रतिष्ठा-महत्त्व देती थी। न्याय प्रिय राजा को कौन नहीं चाहेगा? सूर्योदय से भला पंकज क्यों न विकसित होगा ? होता ही है । उसी प्रकार इसके कर्मचारी गरण सतत् अपने-अपने कर्तव्य पालन में दत्तचित्त थे । मन से आज्ञा की प्रतीक्षा करते थे। राजा अपनी महादेवी पृथ्वीषेरणा के साथ इन्द्रीय जन्य भोगों के साथ श्रावक धर्म का भी नियमित रूप से पालन करता था । लदनूसार महादेवी भी सतत सिद्ध भगवान का ध्यान करती थीं। निरंतर भोगों में उदासीन वृत्ति करते हुए प्रात्म चिन्तन का प्रयास करती थीं । मां का जैसा भाव-परिणाम होता है उसकी संतान भी उसी प्रकार को उत्पन्न होती है। दम्पति वर्ग अपने ग्रहस्थ जीवन के सार भुत पुत्रोत्पति की प्रतीक्षा करते थे । एक दिन दोनों ही शयनागार में निद्रादेवी की गोद में सो गये ।।
प्रातःकाल हो गया। पशु बन्धन खुल गये । पक्षीगण कलरव करने लगे । मुनहलो रवि रमिमयो भूमण्डल पर खेलने लगीं । अाकाश मण्डल सुहाना हो गया । एकाएक बन्दोजनों के आशीर्वादात्मक गीत-संगीत के साथ राजा रानी ने गया त्याग की । प्रांगन में पाये । रत्नों की जगमगाहट से पालोकित प्रांगण को देखकर विश्मय और प्रानन्द में डूब गये । प्रतिदिन निकाल यही दृश्य होता रहा । क्रमश: छ माह व्यतीत हो गये। तीनों संध्याओं में १२ करोड रत्नों के वर्ष से न केवल राजकुल का अपितु समस्त राज्य का दुःख दारिद्र नष्ट हो गया । यावकों का अभाव हो गया। वसन्त्रा ने सार्थक नाम प्राप्त किया । अर्थात् 'वसु' का अर्थ हैं धन, 'धा से धारण करने वाली यह अन्वर्थ नाम हुमा ।