Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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वस्य प्राप्ति..
६ महीने कठोर साधना में व्यतीत हो गये। प्रभु पूर्ण साधना के फलस्वरूप क्षपक थेरपी पर प्रारूढ़ हुए। कहां तक छिपते बेचारे छातिया ऋर कर्म पाठ से नवमें, दसमें और बारहमें मा स्थान में आ पहुँचे । तड़-तड़ कर्मों की बेड़ियाँ टूट गई। समूल नष्ट हो गये चारों घातिया ! तत्क्षण अजान की जड़ उखाड़ प्रियंगु वृक्षतले केवलज्ञान का प्रकाश प्रसारित हो उठा । चैत्र शुक्ला पूर्णमासी के दिन मध्याह्न समय चित्रा नक्षत्र में जगद्योतक ज्ञानी सर्वज्ञपद से अलंकृत हए । अनन्त चतुष्टय प्रकट हो गये । उसी समय इन्द्रों ने केवलज्ञान कल्याण महोत्सव किया। महामह पूजा कर विशाल, अनुपम मण्डप रचना की। समवशरण--
जहाँ पञ्चेन्द्री संज्ञी समस्त भव्य प्राणियों को समान रूप से प्रात्मकल्याण का प्राश्रय प्राप्त होता है उसे समवशरण कहते हैं। आपका समवशरण मण्डप योजन अर्थात ३५ कोस प्रमाण विस्तार वाला था । मध्यस्थ द्वादश गुणों से वेष्टित भगवान रत्न जडित सुवर्ण सिंहासन पर पद्मासन अन्तरिक्ष विराजमान हुए। सप्त भंगमय अनेकान्तमयी दिव्य-ध्वनि द्वारा त्रिकाल धर्मोपदेश दे भव्यों को संबोधित किया। सप्त तत्व, नद पदार्थ, पटमध्य अादि का स्वरूप प्रतिपादित किया। यथार्थ सत्य धर्म प्रकाशित किया । उभय धर्म का प्रतिपादन कर मोक्षमार्ग दर्शाया । देश-देशान्तर में विहार कर भव्यजन सम्बुद्ध किये । सभा मण्डपस्थ प्रथम गणधर श्री चमर (वचचमर) को लेकर ११० गरधर थे । सामान्य केवली १२०००, पूर्वधारी २३००, शिक्षक २६६०००, विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानी १०३०० विक्रिया ऋद्धिधारी १६८००, अवधिमानी १००००, वादी १६०० थे। इस प्रकार सब मिलाकर ३३०००० मुनिराज थे । रतिषेवा प्रादि को लेकर चार लाख बीस हजार प्रायिकाएँ उनको स्तुति एवं पूजन करती थीं । ३० ४००० तीन लाख श्रावक और ५००००० लाख श्राविकाएं थीं। इनके अतिरिक्त असंख्याल देव-देवियों और संख्याले तिर्यन थे । इस प्रकार समस्त गणों को उपदेश देकर भव्य जीवों को मुख के स्थान में पहुंचाते थे। इस प्रकार १६ पूर्वा ६ माह कम १ लाख पूर्व तक धर्मोपदेशामृत वर्षा कर प्रायु का मास शेष रहने पर श्री सम्मेद शिखर पर्वतराज पर "मोहन कुट" पर आ विराजे ।
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