Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
पर्यय ज्ञान ज्योति जाग्रत हो गई। बेला का उपवास धारण किया। इस प्रकार निष्क्रमण कल्याणक सम्पन्न हुमा । प्रथम पारणा-प्राहार----
तीर्थरों के जन्म से पुनीत अयोध्या नगरी का राजा इन्द्र दत्त था । आज उसे विशेष हर्ष और संतोष अनुभव हुआ। वह यथा समय अतिथि सत्कार के लिए द्वारापेक्षा करने लगा। उधर वन से भगवान दो दिन का उपवास निष्ठापन कर चर्यामार्ग से पाये । अत्यन्त संभ्रम से राजा ने नवधाभक्ति पूर्वक पड़गान किया । सप्तगुण युक्त दाता और उत्तम पात्र का संयोग मणि कांचनवत् हुमा । निरन्तराय माहार हा । इन्द्रदत्त के घर पञ्चाश्चर्य हए । भगवान ने धन को प्रस्थान किया । इस प्रकार प्रखण्ड शुद्ध मौन से प्रभु ने १८ वर्ष तक घोर तपश्चरण कर छमस्थ काल वितम्या । अठारह वर्ष बीतने पर बेला.. दो दिन का उपवास लेकर बैशालिवृक्ष के नीचे विराजमान हो घातिया कर्मों को चूर करने में तत्पर हुए । केवलोत्पत्ति---
ध्यानारूढ भगवान अपने स्वरूप में निर्विकल्प स्थिर हुए । निज वभाव में प्रविष्ट होने पर वाह्य छोर कैसे पा सकते हैं और पहले से छुपे हुए भी कसे ठहर सकते हैं ? अर्थात् न पा सकते है और न ही रह सकते हैं । प्रतः वे क्षपक श्रेणी पर आसीन हो क्रमश: शुक्ल ध्यान के तृतीय भेद को प्राप्त हुए। चारों घातियों कर्म नष्ट कर पूर्ण सर्वज्ञता प्राप्त की । पौष शुक्ला चतुर्दशी, पुनर्वसु नक्षत्र में सायंकाल केवलशान उत्पन्न हवा । चराचर समस्त पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों सहित एक ही समय में प्रवलौकित कर लिया ।
केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव
श्री प्रभु को अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होते ही इन्द्रासन कम्पित हा और वह सपरिवार केवलज्ञान कल्याणक उत्सव मनाने के लिए मर्त्यलोक में प्राया। कुवेर को आज्ञा देकर दिव्य समवशरण सभा मण्डप तैयार कराया उसके मध्य में १२ कोठों की गोलाकार गंधकुटी के मध्य कंचनमय सिंहासन पर भगवान को प्रासीन किया । प्रभु निस्पृही