Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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सोचने लगे। वे सोचने लगे "यह शरीर यद्यपि अनेकों प्रकार से लडाया. गया है, पुष्ट किया गया है तो भी एक दिन अवश्य ही नदी के जीर्णश्री किनारे पर खड़े वृक्ष के समान गिर कर मेरा नाश कर देगा ! यह लक्ष्मी rare वेश्या के समान पुण्य क्षीण होते हो धोखा देगी । शरीर में रहने का और मरने के हेतु आयु है इसलिए इसका ही नाश करना श्रेष्ठ । इस संसार की सम्पदाएँ इस श्राकाश के घन नगर के समान अवश्य नाशवान हैं। इसे तो मूर्ख भी समझ सकता है फिर मेरे जैसे बुद्धिमान को क्या धोखा खाना उचित है ?
लौकान्तिक देवों का आगमन -
बारह भावनाओं के चिन्तन में ध्यानस्थ भगवान को ज्ञात कर सारस्वतादि लौकान्तिक देवों का उल्लास बढ़ा । वे उसी क्षरण वहाँ आये और प्रभु के निश्चय का समर्थन कर वैराग्य की पुष्ट किया । श्रथवा अपने जैनेश्वरी दीक्षा के प्रति अनुराम को व्यक्त किया । जो जिसके गुरणों को जानता है, वह उन्हीं की प्रशंसा करता है । श्रतः बड़े भारी
भव के साथ उन्होंने श्री प्रभिनन्दन राजा की पूजा कर दीक्षा महोत्सव मनाया और अपनी भवावली को नष्ट किया । इधर लौकान्तिक ऋषि देव गये और उधर से सोधर्मेन्द्र अपनी सकल सेना लेकर 'हस्तचित्रा' नाम की पालकी के साथ श्राया ।
दीक्षा कल्याणक -
नाना रत्नों से अलंकृत शिविका तैयार कर इन्द्र ने उन प्रभु का प्रवृज्याभिषेक किया। प्रभु ने भी अपने राज्यभार को अपने पुत्र को प्रपित किया और ग्रात्म राज्य स्थापन के हेतु वन विहार करने को उद्यत हुए। अर्थात् शिविका में विराजमान हुए । क्रमशः राजा महाराजा और इन्द्र, देवों द्वारा वह पालकी उठायी गयी उग्रोधान में लायी गयी । यहाँ पहले से इन्द्र ने मरिशिला तैयार कर रक्खी थी । माघ शुक्ला द्वादशी, पुनर्वसु नक्षत्र में सायंकाल १००० ( एक हजार ) राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण की । सिद्धसाक्षी श्रीक्षा लेकर ऊपर मौन से उस शिला पर ध्यानस्थ हो गये । इन्द्रादि एवं राजादि ने उनकी पूजा भक्ति की । स्तुति की। नाना प्रकार से उत्सव कर अपनेअपने स्थान को चले गये । मनोरोध के बल पर प्रभु को उसी समय मनः
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