Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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करता था। इसी से धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ अनुकूल हो उसकी सेवा करते थे । क्या इतना मात्र ही सुख है ? क्या यह चिरस्थायी है ? यह सोचते हो राजा किसी गहरी चिन्ता में डूब गया और तत्काल अपने प्रश्नों का उत्तर खोज लाया । प्रो, हो ! जिन शासन का रहस्य मैंने नहीं समझा । इन क्षणभंगुर राज बैभव, देवांगना समान कामनियों का सहवास पुत्र-पौत्र सभी तो नाशवान हैं । एक मात्र आत्मा ही अपना है प्रात्मिक सुख ही सच्चा, स्थायी सूख है। मुझे उसे ही खोजना चाहिए ? बस उसी क्षण अपने पुत्र अतिरथ को राज्यभार दे दिया और स्वयं वाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर श्री अर्हन्नदन भगवान के समीप दिगम्बर दीक्षा धारण कर दिगम्बर मूनि बन गये। मोह ग्रन्थी को काट ग्यारह अंगों का अभ्यास किया, घोर तप किया, सोलहकारण भावनाएँ भायीं और तीर्थङ्कर प्रकृति बंध किया । अन्त में समाधि पूर्वक प्राण तज वैजयन्त विमान में ३३ सागर को प्रायु बांधकर अहमिन्द्र उत्पन्न हए । एक हाथ प्रमाण शरीर, शुक्ल लेश्या और अप्रवीचार सुख था वहाँ । तत्त्व चर्चा मात्र ही साधन था काल यापन का ।
कहाँ हुमा वह तोयंडर
जम्बूवृक्ष से लाञ्छित जम्बूद्वीप के अन्दर है भरत क्षेत्र । इस क्षेत्र का तिलक रूप है अयोध्या नगर । राजा था मेघरथ, वंश वही इक्ष्याक भगवान वृषभ स्वामी का हो था गोत्र । इसकी पटरानी का नाम था "मंगवा" । वस्तुत: यह मंगलरूपिणी ही थी। उस अहमिन्द्र की प्रायु ६ माह शेष रह गयी तब देवों ने रत्नों की धारा वर्षा कर उस महादेवी की पूजा की। प्रतिदिन तीनों काल ३॥ साढे तीन करोड रनों की वर्षा से राजा का प्रांगन जग-मगा उठा । याचक वृत्ति ही समाप्त हो गई।
श्रावण शुक्ला द्वितीया के दिन महारानी मंगला सूख शैया पर संतोष की निद्रा ले रही थी। पिछली रात्रि में उन्होंने हाथी, वृषभ आदि १६ स्वप्नों के बाद अपने मुख में शुभ्र विशाल गज को प्रविष्ट होते देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र मघा नक्षत्र में उस देवी के शुद्ध गर्भ में पा विराजे ।
- प्रात: उठकर नित्य स्नानादि क्रिया कर आनन्द विभोर वह राजा : मेयरथ के समीप गई और स्वप्नों का फल पूछा । “लोक्य विजयी