Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
manawmmenmitiwwwmarwrming.....
निकृष्ट वस्तु भी उत्कृष्ट हो जाती है । पूज्य पुरुषों के प्राधय से नीच भी पूज्य हो जाता है । देखादेखी--...
नाना प्रकार पूजा, भक्ति कर इन्द्रादि देव सपरिवार अपने-अपने स्थान को लौट गये । अनेकों नर-नारी भी चले गये। तो भी चार हजार राजा वहीं रह गये । उन्होंने सोचा ये भगवान हमारे नेता हैं, पालक हैं इसलिए इन्हें जो इष्ट है वही हमें भी मानना चाहिए।” दीक्षा, तप, साधना से अनभिन्न वे भी प्रभु के समान नग्न हो, बाह्य वेष धारण कर उन्हीं के समान ध्यान मुद्रा वर खड़े हो गये। उनका एक ही अभिप्राय था कि सच्चे सेवक स्वामी के अनुसार चलते हैं अत: हमें भी यही करना योग्य है।
भरत द्वारा पिता ऋषमदेव की पूजा
इन्द्र द्वारा विविध प्रकार स्तोत्र और अनेक द्रव्यों से पूज्य प्रभु प्रातःकालीन सूर्य के समान भित हो रहे थे। उनके नग्न शरीर से स्वाभाविक कान्ति बिखर उठी । उस समय राजा भरत ने भी परमगुरु पिताजी की अनेक प्रकार स्तुति कर बड़ी भक्ति से सूगंधित जल की धारा, चन्दन, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप तथा पके हुए मनोहर सुस्वाद रसीले आम, जामुन, कैथ, पनस, विजौरा, केला, अनार, सुपारियों के सुन्दर गुच्छे और नारियलों से भगवान के चरण कमलों की पूजा की। आनन्दावर्षण करते हुए भारत ने श्रद्धा, भक्ति और विनय से साष्टांग बार-बार नमस्कार किया । हर्ष-विषाद से भरा भरत सपरिवार पुनः पुनः प्रभु का बदन कर अयोध्या लौटे तथा अपने पिता के अनुरूप ही नीति से प्रजा पालन करते हुए श्रावक धर्म में तत्पर हुए।
सपोलीन भगवान ...
प्रात्मा का स्वभाव ज्ञान है । ज्ञान का चरम विकास ही मोक्ष है। झान की पुर्ण अभिव्यक्ति रूप पर्याध का नाम ही केवलज्ञान है। केवलज्ञान के पूर्व समस्त.ज्ञान की पर्यायें अपने में अधूरी हैं यह दशा "अस्थ" कहलाती हैं। स्वयं अपने में अपूर्ण अशेष पदार्थों का यथार्थ उपदेष्टा नहीं हो सकता । इसीलिए तीर्थङ्कर तपकाल में अखबाट मौन से ही