Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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सागर बीत जाने पर आपका जन्म हुमा । आपकी प्रायु ६० लाख पूर्व की थी । शरीर की ऊंचाई ४०० धनुष थी। प्रायु का विभाजन---
चौथाई भाग अर्थात् १५ लाख पूर्व कुमार काल में व्यतीत हुए । ४४ लाख पूर्व और ४ पूर्वाग प्रमाण काल पर्यन्त राज्य शासन कर प्रत्येक क्षण में देवों द्वारा प्राप्त हए भोगोपभोग के सुखों का अनुभव किया । १५ लाख पूर्व की वय में विवाह सम्बन्ध कर दाम्पत्य जीवन का प्रानन्दानुभव किया। भोगों में पापाद मस्तक तल्लीन पंचेन्द्रिय विषयों की तृप्ति में मस्स हुए भगवान का ४४ लाख पूर्व और ४ पूर्वाग क्षणमात्र के समान व्यतीत हो गया। इनके राज्य में प्रजा सर्व सुख और सर्व गुण सम्पन्न थी। वराग्य...
शरदकाल था । नभ में मेघराज अठखेलियां कर रहे थे । कोई पाते कोई जाते, इधर-उधर दौड़ लगा रहे थे भगवान संभव प्रभु मनोरंजन के राग में डूबे इन चलचित्रों को निहार रहे थे । एकाएक मेघों का समूह विलीन हो गया मानों वायु के झोकों की मार से भयातुर हो छुप गया हो । प्रभु का मन इनकी दीनता से तिलमिला उठा, राग-विराग में बदल गया । "संसार का प्रसार रूप प्रब सामने था । धन, यौवन, रूप, लावण्य और जीवन भी इन्हीं मेषों के समान एक दिन, न जाने कब विलीन हो जायेंगे" यह विचार कर उनकी सूक्ष्म दष्टि किसी स्थायी वस्तु की अोर जा लगी। हाँ सत्य है मेरी 'आत्मा' अविमाशी है, बस इसे ही पाना चाहिए। वह इन भोगों में नहीं मिल सकती इनके त्याग में मिलेगी । कर्मों की मार से घायल प्रारणी चारों मतियों में गिरता-पड़ता भटकता है । इस अनाथ दशा का नाश करूगा प्रत्र । इस प्रकार दृढ़ वैराग्य से युक्त प्रभु के विचारों का पोषण करने ब्रह्मलोक के अन्त भाग में निवास करने वाले लोकान्तिक देवगण आकर समर्थन करने लगे। "हे प्रभु ! आप धन्य हैं, पापका विचार श्लाघ्य है, यही मोक्ष का उपाय है, आप ही महान् हैं।" मृत्यु के नाश को दृढ़ प्रतिज्ञ भगवान के वैराग्य भावों का समर्थन कर उन सारस्वतादि देवों ने अपना 'लोकान्त' नाम सार्थक किया और अपने स्थान को चले गये ।।
भगवान ने सम्यक् ज्ञात किया कि संसारी जीवों के अन्दर रहने वाला आयु कम ही यमराज है। अन्य मतावलम्बी भ्रम से अन्य को