Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पधारे । वहाँ का राजा सुरेन्द्र सुवर्ण की कान्ति के समान रूप वाला था । उसने चर्या को प्राते हुए श्री जिन मुनिराज को देखा और दाता के सप्तगुणों से युक्त हो बड़ी श्रद्धा, भक्ति, विनय से प्रभु का पडगाहन किया । नवधा भक्ति से विधिवत् क्षीर का पारणा कराया । अर्थात आहार दान दिया । उसी समय विधिद्राता, पात्र और द्रव्य की विशेषता के सूचक पंचाश्चर्य हुए। अत्यन्त दैदीप्यमान रन वृष्टि साढ़े बारह कोटी पुष्प वृष्टि, गंधोदक वृष्टि, जय-जयनि और मन्द सुगन्ध पवन बहने लगी। छपस्थ काल___ आहार कर प्रमु पुनः शुद्ध मौन से ही ध्यानारूढ़ हुए । शुद्ध बुद्धि के धारक प्रभ चौदह वर्ष पर्यन्त प्रखण्ड शूद्ध मौन से तपारूद रहे। तपश्चरग रूपी अग्नि में तप-तप कर प्रात्मा कुन्दन बनने लगी । कर्म कालिमा भस्म हो क्षार बनकर उड़ने लगी । १४ वर्ष काल । केवलज्ञानोत्पति
__ धर्म ध्यान की भूमिका पार कर शालिवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हुए, प्रभु ने शुक्ल ध्यान में-पृथक्त्वं वितर्क में प्रवेश कर क्षपक थेगी चलना प्रारम्भ किया तत्क्षण १०वें गुणस्थान से १२वें क्षीण कषाय में एकत्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान का पालम्बन ले प्रथम उपान्त्य समय में कर्मों के राजा मोहमल्ल का विनाश कर अन्त समय में एक साथ ज्ञानावरी, दर्शनावरपी और अन्तराय को प्रामुल भस्म कर सर्वज्ञता प्राप्त की अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न किया । १४ वर्ष मौन साधना के बाद कातिक चदी चौथ के मृगशिर नक्षत्र में शाम के समय उसी सहेतुक वन में पूर्णशान प्रकट किया। केवलज्ञान कल्याणक
कोटि सूर्यों से भी अधिक दीप्तिवान प्रभु का परमौदारिक शरीर अद्भुत चमत्कृत होने लगा। नवीन कदलीवृक्ष की कोंपलों के समान हरित वर्ण हो गया। उसी समय सुरेन्द्र की प्राज्ञा से उनके साथसाथ देव-देवी आदि समस्त परिवार ने पाकर मान-कल्याणक महोत्सब मनाया। कुवेर ने अद्भुत समवशरण रूप सभा-मण्डप तैयार किया जिसके मध्य तीन मेखलायुत वेदी पर सुवर्ण सिंहासन रचा और उस