Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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• छह माह पूर्ण हुए, रत्नधारा चालू थी ही सायंकाल महारानी अहद्भक्ति कर सिद्ध प्रभु का ध्यान कर शैया पर आसीन हुयीं आज महारानी सुषेणा विशेष प्रफुल्ल और हर्षित थीं । रात्रि के पिछले प्रहर में उन्होंने माता मरुदेवी की भाँति १६ स्वप्न देखे और अन्त में अपने मुख में गज प्रवेश करते हुए देखा । तत्क्षण मांगलिक वादित्र और जयनाद के साथ निद्रा भंग हई । स्नानादि देवसिक क्रिया कर महारानी सभा में प्रविष्ट हो महाराज दृढ राज या जितारि से 'स्वप्न' निवेदन कर फल जानने की इच्छा व्यक्त की। 'तीर्थ छुर' पुत्र का अवतार जानकर हर्षातिरेक से फूली न समायी । अतः फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मृगशिर नक्षत्र में प्रात: स्वप्नों के अनन्तर अहमिन्द्र लोक की आयु पूर्ण कर विमल वाहन का जीव दर्षण की स्वच्छ पेटी के समान निर्मल, देवियों द्वारा शोधित गर्भ में अवतरित हुए।
चारों ओर आकाश मण्डल, देव, देवियाँ, इन्द्र इन्द्राणियों से भर गया। जय-जयनाद से दिक मण्डल व्याप्त हो गया । महाराज जितारि बढ़ो, नंदो, वृद्धि करो आदि ध्वनि चहुँ ओर गंज रही थी। इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़, नगरी की तीन प्रदक्षिणा दे प्रांगन में आ पहुँचा। पानन्द से माता-पिता की पूजा कर प्रानन्द नाटक किया । नाच-गान कर देवियों को माता की सेवा में नियत कर स्वर्ग लोक चला गया । कुवेर पूर्ववत रत्न वर्षा करता रहा ।
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हा आमोद-प्रमोद, तत्वचर्या, धर्मकथालाप, प्रश्नोतरों से मनोरंजन कर देवियां मां की सेवा करने लगी है गर्भ बढ़ने पर भी उदर को विवली भंग नहीं हुयी । न मां को किसी प्रकार गर्भ भार को अनुभूति ही हुयी । अपितु स्मरण शक्ति, धारणा शक्ति, अवधान शक्ति अत्यन्त बलिष्ठ हो गई। वह स्वयं शान्त रहकर समस्त प्राणियों को शान्ती चाहने लगी। किसी को किसी प्रकार कष्ट न हो यही भावना रहती। शनैः शनै: नवमास पूर्ण हो गए। जन्मातरण---
शरदकाल पाया । अपना पूर्ण वैभव बिखेर दिया । भू-मंडल स्वच्छ हो गया । गगन मण्डल निर्मल हो गया। चहुँऔर काश के पुष्प हंसने लगे, मानों वर्षा की वृद्धता को चिढ़ाते हों अथवा वर्षाकालीन कीचड़कांदे से त्रसित जनों का मनोरंजन ही करना चाहते हो । नद-नदी स्वच्छ
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