Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अभय है और एक मात्र जिन धर्म ही पालक शरणभूत है। महाराजा विमल वाहन ने क्षणभंगुर जीवन में अमर प्रात्मा की खोज करने के . विचार से नश्वर राज्यविभूति को अपने पुत्र विमलकीति को प्रदान किया और स्वयं ने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र से दीक्षा लेकर घोर तप, कठोर साधना से मोहमाल की जड़ खोदने में दस्तावधान हो गये । शास्त्राध्ययन कर ११ अङ्गों का समय रहस्य ज्ञात किया । तत्त्वज्ञान से सोडष १६ कारण भावनाओं को भाकर सम्यग्दर्शन को पूष्ट किया जिससे पुण्य का अंतिम फल "तीर्थ कर गोत्र" बंध किया । समाधि पूर्वक शरीर स्याग २३ सागर की प्रायु के साथ प्रथम सुदर्शन अवेयक में सुदर्शन विमान में महाऋद्धि सम्पन्न अहमिद्र हो गये। शरीर ६० अंगुल मात्र था, शुक्ल लेश्या थी, साढ़े ११ मास के बाद श्वास लेते थे, तेईस हजार वर्ष बाद मानसिक प्राहार था, प्रवीचार-स्त्री संभोग रहित परम सुखभोग था, ७वे नरक पर्यन्त प्रवधिज्ञान था । वहीं तक गमन करने की शक्ति थी। वहीं तक शरीर कान्ति और विक्रिया का प्रसार हो सकने की योग्यता थी परिणमा महिमा आदि ऋद्धियों से सम्पन्न थे, विचित्र है तप का महात्म्य ।
वितरण. पतझड़ हो चुका था । बनस्पति नूतन शृगार करने की तैयारी में संलग्न थी । बसंत सज-धज के साथ भू-मण्डल पर विचरमा करने की तैयारी में झूम रही थी । चारों मोर हर्ष छाया था। उधर धर्म क्षेत्र में उल्लास भरा अष्टाह्निका महापर्व प्रा उपस्थित हुआ। श्रावस्ती नगरी में चारों ओर प्रानन्द छाया था। उल्लास पूर्ण राज महल में चारों मोर खुशियाँ छायीं थी । महाराज दृढ राज अपनी महारानी सुषेरणा के साथ इक्ष्वाकु वंश की श्री-शोभा को बढ़ा रहे थे ! काश्यप गोत्र वृद्धि की प्रतीक्षा में थे । दम्पत्ति वर्ग का समय प्रामोद-प्रमोद के साथ धर्म ध्यान पूर्वक यापित हो रहा था। प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायंकाल ३॥ करोड़ ३।। करोड़ रत्नों की वृष्टि होने लगी। वह रत्नधारा लगातार ६ माह से समस्त राजा-प्रजा को विस्मित किये हुए थी। सद्यपि राजा इसके रहस्थ को समझ रहे थे तो भी मौन थे । आकाश से होने वाली रत्न वृष्टि ने सबको सन्तुष्ट कर दिया था। खोजने पर भी याचक नहीं थे।