Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भगवान की दिव्य दृष्टि क्यों चूकती ? उसी समय उनके सामने संसारकी प्रसारता क्षणभंगुरता झलक उठी । "वे विचारने लगे, यह जीवन, धन, यौवन, विभूति, सब प्रातःकालीन प्रोस बिन्दुनों के समान हैं, बिजली के सदृश नाशवान और मेघों से चंचल हैं । एक मात्र ग्रात्मा ही शास्वत है। मुझे अविनाशी पद प्राप्त करना चाहिए। मैं मूढवत् भोगों में आपादमस्तक डूबकर अपने स्वरूप को भूल गया । घब क्षणभर भी नहीं रह सकता । मुझे शीघ्र ही ग्रात्म सिद्धि करना चाहिए।
बाल ब्रह्मचारी देवों (लोकांतिक) की प्रज्ञप्ति
निश्चल बेराग्य धारा होते ही, इसकी सूचना स्वर्ग लोक में फल गयी । वायरलैस जो है वहाँ । पाँच ब्रह्म स्वर्ग में रहने वाले देवग या पहुँचे और नमस्कार कर प्रभु के वैराग्य की पुष्टि करने लगे, "हे प्रभो आप तीर्थङ्कर हैं, धर्म तीर्थ के प्रवर्तक हैं, आपके द्वारा इस कर्मभूमि युग में मोक्ष मार्ग खुलेगा । अतः यह उत्तमोत्तम विचार सराहनीय है आप शीघ्र दीक्षा धारण कर मोक्षपथ के नेता बनें।" इस प्रकार संबोधन कर अपने स्थान पर चले गये । ये देव निष्क्रमण - दोक्षा कल्याणक के समय ही आते हैं ।
प्रभु द्वारा दीक्षा ग्रहण -
अलौकिक नाट्यशाला है यह संसार । एक ओर वृषभ स्वामी का दीक्षा कल्याण मना रहा है इन्द्र और दूसरी ओर भारत का राज्याभि षेक की तैयारियों हो रही हैं। एक ओर इन्द्राखियाँ देवांगनाएँ, अप्सराएं मंगलमान, नृत्य, मण्डप मंडन, चौक पूरन आदि क्रियाओं में संलग्न हैं दूसरी ओर महारानी यशस्वती एवं सुनन्दा सपरिवार पुत्रों के राज्याभिषेक के लिए तैयारियां कर रहीं हैं । सर्वत्र श्रानन्द, उत्साह और वाद्य ध्वनि गूंजने लगी। प्रथम ही प्रभु को स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान कर इन्द्र ने क्षीर सागर के जल से दीक्षाभिषेक किया । नवीन नवीन वस्त्रालंकार धारण कराये । पुनः सोभाग्यवती स्त्रियों ने नाना सुगन्धित द्रव्यों से भरत और बाहुबलि का मंगलाभिषेक किया । विविध बहुमूल्य वस्त्रालंकार पहनाये । तदनन्तर वृषभ स्वामी ने समस्त प्रजावर्ग के सम्मुख अपना राजमुकुट भरत पुत्र के सिर बांधा अर्थात् भरत को सम्पूर्ण लोक का राज्य प्रदान किया तथा बाहुबलि को युवराज बनाया । अन्य प्रकीति, वृषभसेन आदि पुत्रों को भी यथायोग्य राज्य
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