Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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धूम-घाम, सज्जा, परिवार, सेना प्रादि सहित उमड़ते सागर की भौति जय जय नादों सहित चक्रवर्ती भरत राजा समवसरणं के पास जो पहुँचा । वह हाथी से उतर कर राजचिलों को छोड़ पैदल ही समवसरण में प्रविष्ट हुमा। .
सर्व प्रथम समवसरण की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) दीं । पुनः मानस्थम्भों को पूंजा की। तदनन्तर बड़े संभ्रम और आश्चर्य से खाई, लतावन, कोट, उपवन ध्वजाओं, कल्पवक्ष, स्तूपों की शोभा निहारता श्री मण्डपं के द्वार पहुँचा । वहाँ द्वारपालों का सत्कार कर उनकी अनुशा से अन्दर प्रवेश किया । प्रथम पीठिका पर स्थित चारों धर्मचक्रों की पूजा को, द्वितोय पोठिका पर ध्वजानों की पूजा कर तीसरी पीठिका पर मध्यस्थ सिंहासन पर आसीन श्री जिन राज का. पावन दर्शन किया। भगवान के दाहिनी ओर गोमूख यक्ष, बांयीं ओर चक्रेश्वरी देवी, मध्य में क्षेत्रपाल, प्राज-बाजू श्रीदेवी, श्रुतदेवी और सरस्वती देवी प्रादि जिनशासन वत्सल भक्त अपने-अपने उचित स्थानों पर आसीन थे। सर्व प्रथम भरतेश्वर ने प्रभु को साष्टांग नमस्कार किया नाना द्रव्यों से पूजा की । पुनः नाना प्रकार स्तुति की । पुन: पुन: मानन्दविभोर हो नमस्कार कर यथायोग्य (मनुष्यों के कोठे में) स्थान पर बैठकर, करबद्ध हो प्रभु से जीवादि तत्त्वों का स्वरूप सुनने, जानने और समझने की प्रार्थना की। तदनुसार प्रभु ने अपनी अनुपम, अलौकिक वांगी से तत्वोपदेश प्रारम्भ किया ।
उस समय भगवान के कण्ठ, प्रोठ, तालु, जिह्वा, दांत आदि कोई भी उच्चारण स्थान नहीं हिल रहे थे। मुख पर कोई भी विकार नहीं हा 1 इन्द्रियों के प्रयत्न बिना ही वाणी दिव्य-ध्वनि खिरती थी।
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___ "हे आयुष्मन, भव्यात्मन् ! जीव को लेकर, पुदगल धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये ६ द्रव्य हैं। जीवं, अजीक, असक, बंध, संघर, निर्जरा और मोक्ष से सात तत्व हैं। इनमें पुण्य, पाप को मिलाने पर नव पदार्थ हो जाते हैं। ६ द्रव्यों में से काल द्रव्य को निकालने पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश ये गांच अस्तिकाय कहलाते हैं । इनसे तीनों लोक भरे हैं। इन सब में जीव द्रव्य ही प्रमुख है ! जीव और पुद्गल अनादि से अशुद्ध हैं । अपने-अपने पुरुषार्थ से दोनों शुद्ध हो सकते हैं। जीव का पुरुषार्थ क्रियात्मक है परन्तु पुद्गल का स्वभाव से गलन पूरणं