Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ होतय बहुप्पगार तस्सयपावरस फलबिवागं अयाणमाणा वड्रंति महन्भयं अविस्सामवैयणं दीहकालं, बहुदुक्ख संकडं नरगतिरिक्खजाणिइओ आउक्खएच्या अनुभ कम्म बहुला है उववजात // नरएस हुलिय महालएसु वयरामय कुडुरुदनि रसंधिवारं विरहिय निमद्दव भूमितल खरामसाविसम, निरयघरचारएसु महोसिण सयए तत्त दुग्गंधविस्स उव्वेयण गंमु, विभत्थ दरिसणिजेसु, णिचहिमपडल मीयलेसुय, कालाभाससुय भीमगंभीर र HE पडेंगे मो कहते हैं-अज्ञान बनकर जीवों पाप में प्रवृत्ति करते हैं. परंतु अज्ञानपने में किया हुवा पाप का फल भी / आश्यमेव भोगना होता है. ऐमा पाप भविष्यत् में महा भय का उत्पादक होगा, दर्घ काल पर्यंत अनेक प्रहारकी नरक तिर्य व योनिमें विश्राम रहित निरंतर अमाता वेदनीयका अनुभव करावेगा, हिपक यांस आयुष्य पूर्ण करके नरकमें जिस प्रकारका दःख भोगदेंगे सो कहते हैं. वहां नरक क्षेत्र और क्षेत्र में बड है. वहां वज्रान की भित्ति विस्तीर्ण और मधि रहित है, कठोर भूमित ल है. कर्कश स्पर्श है, विषम-ऊंचा नीचा स्थान है, वहां चारक गो जैसे उत्सात्त के स्थान वहां भित्त के कार के भाग में नैरपिक के उत्पत्ति स्थान रूप बिल हैं. वे सदैव ऊष्ण, तप्त, अशभ दधिमय, अवश्य चिंता उत्पन्न करनेवाले, बीभत्स, अरनोज्ञ दर्शनाय, सदैव हिम के पडल जैम शीतल + स्थान हैं. वे स्थान कृष्ण वर्णवाले, काली क्रांतिवाले, + जहां शीत है वहां अत्यंत शीत हे और जहां ऊष्णता है वहां अत्यंत ऊष्णता है. मुनि श्री अमालकं ऋषिजी 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि / प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुरुदर महायज! चालाप्रसादजी